Friday, 22 March 2013

गठबंधन धर्म या ब्लैकमेलिंग





राजनीति-शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार गठबंधन धर्मं की तीन शर्तें होती हैं : पारस्परिक टकराव के कम से कम कारक; झगड़े निपटाने के लिए एक मैकेनिज्म और जन-मानस में गठबंधन के उद्देश्यों के प्रति  विश्वसनीयता. द्रविड़ मुनेत्र कजगम (डी एम् के) इन तीनों मानदंडों पर असफल रहा. और उसकी जगह यू पी ए -२ की केंद्र सरकार के सामने उसने एक ऐसी मांग रखी जो ना मुमकिन-उल-अम्ल (अव्यावहारिक ) है. अगर उसकी मांग के सामने घुटने टेकते हुए भारत सरकार अमरीकी प्रस्ताव में तरमीम करते हुए या अपना प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद् (यू एन एच आर सी)  के सामने रखे तो ऐसा प्रस्ताव ना केवल गिर जाएगा बल्कि भारत की जग-हसाई होगी. गँवाई भाषा में डी एम् के की इस मांग को “ब्लैकमेलिंग” कहा जा सकता है.
भारत के संविधान में नागरिक के मौलिक अधिकारों की वर्जना में शामिल है कि अगर कोई व्यक्ति इस अभिव्यक्ति से किसी मित्र देश से सम्बन्ध खराब होने का सबब बनाता है तो उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित की जा सकती है. यहाँ तो पूरा का पूरा दल हीं भारत-श्रीलंका संबंधों पर कुल्हाड़ी चला रहा है.
यह बात सही है कि श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रहे सरकारी अत्याचार को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. समूचे तमिलनाडु के लिए यह शायद सबसे बड़ा मुद्दा है. तमिल उग्रवादी संगठनों ने भी श्रीलंका  की सरकार से लगातार मोर्चा ले रखा है. लेकिन क्या कोई अन्य देश इस मुद्दे को लेकर यू एन एच आर सी  में यही प्रस्ताव ला सकता है जिसके तहत श्रीलंका की सरकार पर सीधा आरोप हो कि वह तमिलों का नरसंहार (जेनोसाइड) कर रही है. फिर श्रीलंका से भारत से सम्बन्ध हेमेशा से बेहतर रहे हैं. यहाँ तक कि  इन्हीं संबंधों के तहत उस देश में शान्ति सेना (आई पी के ऍफ़) भेजने की परिणति राजीव गाँधी की ह्त्या में हुई.  
यही बात भी सच है यह मुद्दा उठा कर और केंद्र सरकार से समर्थन वापस ले कर डी एम् के नेता करूणानिधि अपने राज्य में हीरो हो गए है. राज्य की मुख्यमंत्री और ए आई ए डी एम् के की मुखिया जयललिथा की चमक फीकी पड़ गयी है. भारत के वित्तमंत्री प चिदंबरम इस दौराम संकटमोचक की रूप में चेन्नई गए ज़रूर पर कोई खास सफलता हासिल नहीं कर पाए. करूणानिधि ने समर्थन वापस ले लिए और चेतावनी दी कि अगर समर्थन चाहिए तो प्रस्ताव में “नरसंहार”  शब्द डालो. साथ हीं विश्व संगठन के सामने एक अन्य प्रस्ताव भी लाओ जिसके तहत किसी विश्वसनीय अंतर्राष्ट्रीय जांच आयोग द्वारा तमिलों के खिलाफ श्रीलंका के सेना व प्रशासन द्वारा की जा रही ज्यादतियों की जांच हो सके. डी एम् के ने करीब ४८ घंटे का अल्टीमेटम केंद्र सरकार को दिया है. इस बात की भी कोई उम्मीद नहीं है कि तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिथा केंद्र सरकार को समर्थन देंगी क्योंकि चिदंबरम और उनके बीच ३६ का आंकड़ा है और वह आजकल मोदी और भाजपा के कहीं ज्यादा करीब नज़र आती है. वैसे भी लोक सभा में उनके पास डी एम् के के मुकाबले आधे सांसद हीं है.
लेकिन एक शक यह भी होता है कि कहीं यह पूरे खेल “नूरा-कुश्ती” का तो नहीं है. “तुन मुद्दा हड़पो, हम से मांग करो कि “नरसंहार” शब्द भारत के प्रस्ताव में हो, हम इसे संसद में लायें, लाजमी है कि वहां बैठे लोग यह शब्द नहीं लाने देंगे और कोई मुलायम शब्द प्रयोग करेंगे. डी एम् के का मुद्दे पर कब्ज़ा हो जायेगा, संसद से पारित भी हो जायेगा (हल्के शब्द के साथ). कहने का मतलब कि सांप भी मर जाएगा और लाठी भी बची रहेगी. दरअसल ज़रूरी नहीं कि राजनीति में जो दिखता है वही सत्य होता हो. बल्कि कई बार आभासित सत्य और असली सत्य में दूर –दूर तक रिश्ता नहीं होता.
बहरहाल अगर मान भी लिया जाये कि डी एम् के अपनी बात पर कायम रहेगा तो क्या सरकार गिरेगी क्योंकि कोई दिमागीरूप से दिवालिया राष्ट्र हीं इन मांगों को मान सकता है? शायद नहीं, क्योंकि लोक सभा में कुल २७२ सांसदों का समर्थन चाहिए. फिलवक्त यू पी ए -२ को २३६ सांसदों की समर्थन प्राप्त है. भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों --समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी – के क्रमशः २२ और २१ सांसद समर्थन देने को तैयार हैं –अपने –अपने कारणों से. लिहाज़ा सरकार के ऊपर कोई खतरा आसन्न नहीं है.  साथ हीं कोई भी संसद व्यक्तिगत रूप से और बहुजन समाज पार्टी दल के रूप में नहीं चाहते कि निश्चित अवधि से साल भर पहले चुनाव हो. छोटी पार्टियाँ व उनके नेता भी सरकार चलते रहने में हीं अपना भला देखते है. कहना ना होगा कि कुल करीब ५९ ऐसे संसद सदस्य है जो आज भी मनमोहन सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं. हालांकि जल्द चुनाव होना समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के हित में होगा क्योंकि हाल हीं में उनकी पार्टी में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की है और अभी भी उनके बेटे और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की प्रशासनिक अक्षमता की कलई पूरी तरह नहीं खुल सकी है. लिहाज़ा जितनी जल्द चुनाव हो जाये उतना हीं अच्छा होगा.
बहरहाल किन्हीं अज्ञात कारणों से मुलायम तब तक केंद्र सरकार के समर्थन में रहेंगे जबतक उनको यह सुनिश्चित न हो जाए कि सरकार गिरना तय है. चूंकि बसपा सुप्रीमो मायावती की दिलचस्पी सरकार के चलते रहने में है लिहाज़ा दोनों पार्टियाँ इस सरकार को समर्थन देती रहेंगी.  
जहाँ तक कांग्रेस की बात है वह किसी भी स्थिति में इस समय, जब कि उसका स्टॉक भ्रष्टाचार के तमाम मुद्दों को लेकर गिरा हो, चुनाव नहीं चाहेगी. कांग्रेस के रणनीतिकारों का मानना है कि उनकी दो भावी योजनाए ----लाभार्थियों के खाते में सीधा धन और बेहद सस्ते में ६७ प्रतिशत लोगों को अनाज (खाद्य सुरक्षा विधेयक) --- खेल बदलने वाला साबित होंगी. कुछ हद तक यह आशावादिता सही भी है क्योंकि सरकार के गोदामों में अनाज भरा पड़ा है , सड़ रहा है , केवल डिलीवरी उपयुक्त करना है. जहाँ तक खर्च का सवाल है मात्र रु २४,००० करोड़ का हीं अतिरिक्त व्यय आयेगा.
लेकिन इन सब सथियों से अलग जो मूल प्रशन है वह यह कि क्या गटबंधन का जीवन ब्लैकमेल के आधार पर चलेगा? अगर ऐसे सन्देश जनता में जाते हैं तो क्या इसका सीधा मतलब यह नहीं होगा कि शासक वर्ग से जनता का मोह भंग होगा जो एक खतरनाक स्थिति को जन्म दे सकता है.
पहले से भी यह माना जा रहा है कि मुलायम सिंह व मायावती के खिलाफ सी बी आई जांच समर्थन का एक बड़ा कारण हो सकते है. जिस तरह मुलायम के मामले में सी बी आई ने सर्वोच्च न्यायालय में बार –बार अपना स्टैंड बदला रहा है वह कहीं यह आभास तो देता हीं है कि आभाषित सत्य और यथार्थ में जबरदस्त विरोधाभास है.
राजनीति के इस खेल में अविश्वास का बाज़ार गर्म है. दुष्यंत ने इन्हीं स्थितियों को देखर कहा था :
“बहुत ऊँची यहाँ नीचाइयां हैं अभी कुछ और अपना सर तराशो”

bhaskar

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