Saturday, 22 April 2017

अपराध न्यायशास्त्र के लिए नयी चुनौती

सर्वोच्च न्यायलय के फैसले से उपजे छ: बिंदु
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बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवादस्पद दांचे के गिराए जाने के २५ साल बाद सर्वोच्च अदालत के ताज़ा  फैसले ने छः नए प्रश्नों को जन्म दिया है. अदालत ने कहा  कि इस मामले में दायर दो ऍफ़ आई आर ( एक कार सेवकों के खिलाफ और दूसरा २१ बड़े नेताओं के  खिलाफ) को  संयुक्त रूप से समयबद्ध तरीके से दो साल के अन्दर सुन कर फैसला दिया जाये और तब  तक मामले को सुनने वाले जज का तबादला न हो. फैसले का तात्पर्य यह कि भारतीय जनता  पार्टी के पितामह लालकृष्ण आडवाणी (८९ वर्ष) , पूर्व अध्यक्ष मुरलीमनोहर जोशी (८३ वर्ष) के खिलाफ ढांचा गिराने  की साजिश का मुकदमा लखनऊ की अदालत में फिर से शुरू होगा. और साथ हीं अभियुक्त चाहें  तो सभी ६५६ गवाहों से फिर से जिरह की जा सकती  है.  अदालत के पास मात्र ५६४ कार्य दिवस हैं। 

इस फैसले से उपजे प्रश्न हैं: (१) क्या आडवाणी अब राष्ट्रपति पद के  प्रत्याशी बनने के लिए योग्य रहेंगे?; (२) धार्मिक-राजनितिक-सामाजिक आंदोलनों को लेकर किसी राजनेता के बयानों से उपजे जनांदोलन की परिणति के आधार पर क्या साजिश के अंश देखना या अपराध-शास्त्र के “मेंस रिया”  के सिद्धांत के  तहत दोष के अंश (कल्पेबिलिटी) निर्धारित करना आसान होगा? (३) क्या घटना के २५ साल बाद गवाहों को याद होगा कि उन्होंने क्या देखा था और पिछली (१५ साल पहले) जिरह  में क्या कहा था?; (४) क्या सुप्रीम कोर्ट  को सन २००२ और सन २००७ में  इसी अदालत द्वारा लिए  गए  फैसले को देखने की ज़रुरत नहीं थी जिसमे इसी अदालत ने दोनों मामलों को संयुक्तरूप से लखनऊ में सुने जाने की याचिका  को ख़ारिज करने वाले हाई कोर्ट के फ़ैसले को बहाल रखा था और वह भी तीन सदस्यीय  बेंच द्वारा?; (५) (यह प्रश्न न्यायिक प्रक्रिया में नैतिकता का ज्यादा  है कानून का कम) पिछले २५ सालों में अदालतें और अभियोजन संस्थाएं ढिलाई करती रहीं लिहाज़ा इन २१ नेताओं में (जिनके खिलाफ रायबरेली की अदालत  में मुकदमा चल रहा था, आठ मर चुके हैं और एक के खिलाफ इसलिए मुकदमा नहीं चल सकता कि वह वर्तमान में राज्यपाल है)  से १३ आज जीवित हैं. क्या अच्छा स्वास्थ्य और दीर्घकालीन जीवन होना अभिशाप है और साथ  हीं अगर राष्ट्रपति पद का चुनाव इस फैसले  के दो माह पूर्व होता और अगर अडवाणी राष्ट्रपति बन जाते तो क्या यह मुकदमा चल सकता था ? (६) सर्वोच्च  न्यायलय ने अपने इस फैसले में पैरा १९ में न्याय का एक  सिद्धांत उधृत किया है  जिसके तहत कहा गया  है कि चाहे आसमान गिर जाये न्याय किया  जाना चाहिए. ऐसे  में इसी अदालत की बड़ी बेंच द्वारा इस फैसले से इतर  फैसला दिया जाना (सन २००२ और सन २००७) इस सिद्धांत से परे था?      

                      राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी
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देश में केवल दो पद हैं जिन पर बैठने के पहले व्यक्ति संविधान  के अभिरक्षण, परिरक्षण व संरक्षण की शपथ लेता है. ये पद हैं राष्ट्रपति और राज्यपाल. अन्य  सभी यहाँ तक कि प्रधानमंत्री , उप  राष्ट्रपति , भारत के मुख्य-न्यायाधीश संविधान में निष्ठा की शपथ लेते हैं. कोई व्यक्ति सविधान के अनुच्छेदों के तहत बनाये गए कानूनों का अगर उल्लंघन  करने का आरोपी  है तो इसका  मतलब होता है  कि उस संविधान  की रक्षा की शपथ नहीं  ले सकता. यही कारण है  कि भारत जनता पार्टी के ८९ – वर्षीय पितामह लालकृष्ण आडवाणी या पार्टी के पूर्व अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी अब राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी नहीं हो सकते.

इसमें कोई दो राय नहीं  कि सर्वोच्च  अदालत के फैसले से न केवल न्याय के  इस  मंदिर के  प्रति जनता का विश्वास बढा है बल्कि इस फैसले ने कानून की दुनिया में चर्चित यह ब्रह्म वाक्य भी सत्य साबित किया “चाहे आप कितने भी ऊपर हों , कानून आप से ऊपर रहेगा”. इस फैसले के बाद अब लखनऊ में सी बी आई की अदालत ऍफ़ आई आर संख्या १९७  और १९८ (पहला सभी कार सेवकों के खिलाफ और दूसरा २१ विशिष्ठ व्यक्तियों –जिनमें आठ मर चुके हैं) एक साथ सुना जाएगा. साथ हीं दुनिया  में अपराध न्यायशास्त्र के लिए सी बी आई कोर्ट का भावी फैसला एक नया आयाम  होगा. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ६ दिसम्बर, १९९२ के प्रस्तावित कार –सेवा के पूर्व देश के हिन्दुओं में राम मंदिर को लेकर एक जबरदस्त उन्माद पैदा किया गया था. यह भी सच है कि आडवाणी, जोशी ने देश भर में यात्रायें निकाली थी. उमा भारती और साध्वी ऋतंभरा के तत्कालीन भाषणों ने  इस उन्माद को हवा देने का काम किया था. अदालत के सामने ये सारे प्रश्न होंगे. पर मूल प्रश्न होगा --क्या विवादास्पद ढाँचा गिराये जाने में इन आरोपियों की साज़िश के स्तर पर भी कोई संलिप्तता थी? इन नेताओं पर मुकदमा आई पी सी की धारा १२० (बी) के तहत है अर्थात आपराधिक साजिश करने का.

यह बात स्पष्ट है (और जिसका जिक्र वर्तमान फैसले में किया भी  गया है) कि हाई कोर्ट ने टेक्निकल आधार पर दोनों मामलों को एक साथ चलाने का राज्य सरकार की दूसरी अधिसूचना ख़ारिज  की थी क्योंकि सरकार ने इस अधिसूचना के लिए उच्च न्यायलय की सहमति नहीं ली  थी. लेकिन फिर अगर अगले चार से छः सालों में सर्वोच्च न्यायलय ने पुनरीक्षण याचिका, रिविजन याचिका हीं नहीं क्यूरेटिव याचिका के दौरान भी हाई कोर्ट के आदेश को बहाल रखा तो क्या आरोपी इसका खामियाजा भुगतें यह न्यायोचित है?
इस फैसले के तत्काल बाद केंद्र में सत्तानशीन भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व प्रधानमंत्री के आवास  पर बैठा और यह फैसला लिया गया कि इन वयोवृद्ध नेताओं को मुक़दमा लड़ना चाहिए और बेदाग़ निकलने की कोशिश की जानी चाहिए. जाहिर है पार्टी को जब दो साल में फैसला आयेगा तो जो भी फैसला हो २०१९ के चुनाव में इसका राजनीतिक  लाभ मिलेगा. यह अलग बात है  कि अगर स्पेशल कोर्ट से सजा होती भी है तो इसकी अपील फिर  हाई कोर्ट में हो सकती है लेकिन भारतीय समाज के एक सम्प्रदाय विशेष में इन नेताओं के प्रति और साथ हीं पार्टी के प्रति सहानुभूति रहेगी.

एक प्रश्न और भी अनुत्तरित रहेगा और वह यह कि दो साल बाद जब कल्याण सिंह राज्यपाल के पद से हटेंगे और उन पर मुकदमा चलेगा तो क्या वह भी  यह अपेक्षा नहीं  करेंगे कि सभी गवाहों से फिर से जिरह हो जो कि उनका मौलिक अधिकार है? और तब क्या एक हीं मामले में तीन बार गवाहों का जिरह और वह भी लगभग ३० साल बाद न्याय  की प्रक्रिया के लिए उपयुक्त होगा?            

lokmat                                                                                                                                                                                                            

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