Monday, 23 May 2016

मीडिया को नहीं तो कम से कम न्यायपालिका को तो बख्श दो सरकार !!



फ़्रांस के समाजशास्त्री अलेक्सिस टाक्विल (१८३५) और ब्रिटेन के राजनीतिक दार्शनिक जॉन स्टीवर्ट मिल (१८६०) ने २५ साल के अंतराल में प्रजातंत्र के दो नये खतरों के प्रति आगाह किया था. पहले का मानना था कि “बहुमत के आतंक” के शिकार व्यक्ति के पास कोई बचने का चारा नहीं होता. दूसरे ने इस भय की ओर इंगित किया था कि “प्रजातंत्र मात्र एक शासन पद्धति न होकर असंगठित भीड़ की पसंद और नापसंद को देशवासियों पर बलात थोपने की प्रक्रिया है”.    

जब मोदी सरकार का एक वरिष्ठ मंत्री ६० दिन में दो बार (एक बार प्रेस नोट जारी करके) जन-मंचों से अपने प्रधानमंत्री को “भारत के लिए ईश्वर का उपहार” बताता है और उसे फटकार नहीं पड़ती या पद से इस सामंती चाटुकारिता के लिए हटाया नहीं जाता तो डर लगता है कहीं पूरे देशवासियों को शासन अपनी दंड –शक्ति से इस नए “दैवीय उपहार” की वंदना करने को मजबूर तो नहीं करेगा. तार्किक समाज में तो “संविधान” को देश की सामूहिक सोच का उपहार माना जाता है। उसी समाज से वोट लेकर मंत्री मंत्री बनता है और प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री और उसी संविधान की शपथ के बाद मंत्रिमंडल शासन करता है. अगर इसके अतिरिक्त कोई “उपहार” है तो वह व्यक्तिगत सोच हो सकती है जो जन-धरातल पर व्यक्त नहीं की जानी चाहिए बल्कि कमरे के अन्दर “अर्चना” की जानी चाहिए. इसी भाव में जब एक अन्य मंत्री “भारत माता” की जय न बोलने वालों को “पापी” बताता है और ऐसे लोगों को कानून बना कर मजबूर करने की धमकी देता है तो भी डर लगता है. यह डर तब और बढ़ जाता है जब एक अन्य सबसे प्रभावी मंत्री न्यायपालिका पर जनता के बीच जा कर सतत हमला करता है.

क्या हो गया है भारतीय जनता पार्टी के विवेक को? “पापी” या “दैवीय उपहार” यह सभ्य और तार्किक समाज के शब्द नहीं हैं. और भारत के संविधान में तो हर नागरिक से “वैज्ञानिक सोच” विकसित करने की अपेक्षा (अनुच्छेद ५१ ज) में की गयी है तथा उद्देशिका में भी “उपासना की स्वतन्त्रता” दी है.

देश का प्रजातंत्र एक खतरनाक मोड़ पर है. भारतीय समाज अनगनित पहचान समूहों में बंटा है और सत्ता में जगह पाने की जबरदस्त लड़ाई चल रही है. राजनीति –शास्त्र के सिद्धांत के अनुसार प्रजातंत्र में जन-धरातल पर तो यह लड़ाई अनवरत रूप से चलती रहती है लेकिन सत्ता में आया दल निर्विकार भाव से कुछ पूर्व-स्थापित मूल्यों, संविधान और तज्ज़नित विधियों के अनुरूप शासन करता है. यहाँ एक लक्ष्मण रेखा होती है. जब पहचान समूह या समूहों के बल पर सत्ता में आया दल या दलों का गठबंधन दूसरे पहचान समूह या समूहों को एक सीमा से ज्यादा नज़रअंदाज या प्रताड़ित करने की कोशिश करता है तो मीडिया या न्यायपालिका तन कर खडी हो जाती है. यह प्रजातंत्र की खूबसूरती है कि जब कोई एक संस्था पाक्षिक, अनैतिक या अकर्मक होने लगती हो तो दूसरी संस्था उसे सही रास्ते पर लाने के लिए अपनी भूमिका में थोडा विस्तार करती है याने मीडिया का कवरेज बढ़ जाता है , भाषा तल्ख़ हो जाती है और न्यायपालिका का रुख सख्त.  

मोदी सरकार का एक मंत्री मीडिया को “प्रेस्टीच्यूट” (प्रेस और प्रोस्टीच्यूट --पैसे के लिए शरीर बेचने वाली/वाला-- का शाब्दिक वर्ण -संकर) कहता है. एक अन्य मंत्री “जो भारत माता की जय नहीं बोलेगा वह पापी है का “श्राप” देता है",  दूसरे दिन उन्हें पाकिस्तान भेजने का ऐलान करता है और तीसरे दिन उनको इस पाप से बचाने के लिए कानून बना कर मजबूर करने की धमकी देता है. जाहिर है यह धमकी केवल अल्पसंख्यकों के लिए नहीं बल्कि उन सभी देशवासियों के लिए है जो सताधारी दल के इस भाव से सहमति नहीं रखते. क्यों “भारत माता की जय” ? क्यों भारत पिता की जय नहीं ? क्यों मादर-ए-वतन जिंदाबाद नहीं? क्यों भारत के प्रति अमूर्त सम्मान नहीं जो “अद्वैतवाद” का मूल है ? क्यों जय भी बोलें तो एक खास भाव में? याने सत्ताधारी दल शब्द भी अपने चुनेगा, उसका मूर्त रूप कैसा हो यह भी तय करेगा और निष्ठां व्यक्त करने का तरीका भी वही बताएगा ! और अगर यह सब नहीं किया गया तो कानून भी बना देगा क्योंकि वह संसद में बहुमत में है. और जब कभी न्यायपालिका इस कुप्रयास को संविधान के मूल दांचे के विपरीत बताएगा तो न्यायपालिका पर अपनी सीमा लांघने का आरोप लगेगा !    

जब बहुसंख्यक पहचान समूह और सत्ता में काबिज लोग यकसां हो जाते हैं, जब उनके मंत्री घूम –घूम कर अल्प-संख्यक पहचान समूह को पाकिस्तान भेजने का ऐलान करते हैं और जब सत्ता में बैठा सबसे प्रखर मंत्री देश की बची-खुची और सबसे सम्मानित संस्था को पानी पी –पी कर जन मंचों से कोसने लगता है तो लगता है प्रजातन्त्र का टिकना मुश्किल होगा. इस खतरे के अंदेशे को तब और बल मिलता है जब ऐसे मंत्री पर कोई लगाम नहीं लगाया जाता. साफ़ दीखता है कि बहुसंख्यक का यह भाव राज्य की परोक्ष नीति बन गयी है.

जब यू पी ए के काल में २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले को लेकर देश की हर संस्था ने सरकार के रवैये को गलत बताना शुरू किया, जब सी ए जी की रिपोर्ट के प्रकाश में मीडिया भ्रष्टाचार पर जबरदस्त कवरेज करते हुए सामूहिक चेतना में गुणात्मक परिवर्तन का सबब बना, जब सुप्रीम कोर्ट ने सत्ता में बैठे लोगों पर भरोसा न करते हुए भ्रष्टाचार के बड़े मामले में जाँच अपनी देखरेख में कराना शुरू किया और जब इस अदालत ने देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी को “पिंजड़े में बंद तोता” कहा तो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के इन मंत्रियों को मीडिया, न्यायपालिका गलत नहीं लगी थी और उसी को आगे बढ़ाते हुए जनमत के आधार पर आना बुरा नहीं लगा था. नैतिकता तो तब होती जब घोषणा पत्र में मोदी को देशवाशियों के लिए “दैवीय उपहार” बताते और भारत माता की जय न कहने वालों को पापी प्रमुख बिन्दु होता? 

क्यों न्यायपालिका मजबूर होती है इस संस्थाओं को दिशा-निर्देश देने के लिए. देश के माहौल में जब सांप्रदायिक आवेश पैदा करना मंत्री का शगल हो जाएगा तो अखलाक मारा जाता है. मंत्री पूछता है “क्या सरकार ने मारा , क्या भाजपा ने मारा ?”. नहीं लेकिन मंत्री जब माहौल बनाता है तो एक वर्ग में उन्माद बढ़ता है और वह वर्ग मंत्री या पार्टी को खुश करने के लिए अखलाक के यहाँ कौन सा गोश्त पका है ढूढने निकल पड़ता है.

१९ वीं सदी के पूर्वार्ध में अमरीका में जैकसोनियन प्रजातंत्र की पूरे यूरोप में धूम थी. फ़्रांस के राजनीतिक चिन्तक अलेक्सिस टाकविल्ल उत्सुकतावश इसका अध्ययन करने उस सदी के तीसरे दशक में अमरीका पहुंचे. लौट कर सन १८३५ में उन्होंने “अमरीका में प्रजातंत्र” शीर्षक एक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने “बहुमत के आतंकवाद” से आगाह किया. उनका कहना था “प्रजातंत्र  की कमियों को लेकर अब तक की यूरोपीय अवधारणा से हट कर जो सबसे बड़ा ख़तरा है वह बहुमत के आतंक का है. अगर कोई व्यक्ति इस आतंक से प्रताणित होता है तो वह किसके पास जाये ? जनमत के पास जो कि उसी बहुमत वाले के पास है ; विधायिका के पास जिसमें उसी बहुमत के लोग चुने गए है ; कार्यपालिका के पास जो उसी बहुमत की सरकार द्वारा नियुक्त की गयी है ; न्यायपालिका के पास जो इसी बहुमत के लोगों द्वारा चुने जाती हैं?” . भारत के संविधान में एक गनीमत है कि यूरोप या अमरीका से से हट कर न्यायपालिका स्वतंत्र है और यही एक सहारा है. लेकिन उसे भी लक्ष्मण रेखा दिखाई जा रही है.

lokmat/ hindustan


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