पहले दिल्ली, फिर बिहार और अब गुजरात के ग्रामीण क्षेत्र. इनके चुनाव परिणाम एक सन्देश दे रहे हैं. अगर यह सन्देश सत्ता पक्ष या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नहीं पढ़ते तो “....विपरीत बुद्धि” चरितार्थ कर रहे हैं. आज १९ महीने के मोदी शासन के बाद अगर किसी कक्षा ७ के बच्चे से भी सन २०१४ के आम चुनाव के परिणाम, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की स्वीकार्यता के पीछे जनता की अपेक्षाएं और तज्जनित जबरदस्त मतदान (२००९ के १८.६ प्रतिशत से बढ़ कर ३१.३ प्रतिशत) से हासिल पूर्ण बहुमत की पूरी स्थिति बताते हुए यह पूछा जाये कि देश की सरकार और खासकर प्रधानमंत्री को क्या करना चाहिए तो वह अनायास हीं कह उठेगा उन अपेक्षाओं को पूरा करना चाहिए.
और ये मूल अपेक्षाएं क्या थीं? देश में उद्योग लगे ताकि युवाओं को रोज़गार मिले, किसान आर्थिक तंगी झेलने में असफल हो कर पास वाले आम के पेड़ से न लटके याने कृषि का विकास, भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश , देश में शांति का माहौल और राज्य की शक्तियों और अभिकरणों के सामर्थ्य का आतंकवाद पर दहशत. और इन्हें पूरा करने के सभी कारक मौजूद भी थे. उदाहरण के तौर पर भारतीय जनता पार्टी के पास लोक सभा में अपने २८२ सदस्य (बहुमत से दस ज्यादा) लिहाज़ा “गठबंधन धर्म का अनैतिक दबाव भी नहीं, चूंकि पार्टी और मातृसंस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यह जानती है कि वोट मोदी को मिले हैं इसलिए यह भी दबाव नहीं कि “हमारी फैयाज़ दिली की वजह से तुम वहां हो और जब हम चाहें तुम्हे “पुनर्मूसको भव” की स्थिति में पहुंचा देंगे”. फिर क्यों ये महंत, ये साध्वी, ये उग्र हिंदूवादी क्यों विकास की दिशा बदल रहे हैं? क्यों नहीं इन्हें चुप कराया जाता. जो प्रधानमंत्री इतना शक्स्तिशाली हो कि रातों-रात अपनी पसंद का पार्टी अध्यक्ष ला सकता हो, जो प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों में उस भय का संचार कर सकता हो कि वे डर के मारे किसी पी एम ओ के अदना अधिकारी का मुंह ताकते हों निर्देश के लिए, जो प्रधानमंत्री पार्टी के आडवानी , जोशी जैसे दिग्गजों को रेलवे की “एबंडोंड” (परित्यक्त) पटरी की तरह छोड़ रखा हो वह इतना कमज़ोर कैसे हो सकता है कि एक महंत या साध्वी उसके एजेंडा की ऐसी- तैसी महीने-दर-महीने करते रहे और देश का माहौल बिगड़ता रहे?
क्या इसके लिए “राकेट साइंस” जानने की जरूरत है कि देश का माहौल बिगड़ा है. क्या यह कह कर कि जो लोग पुरष्कार लौटा रहे हैं वह कांग्रेस और कम्युनिस्टों के पिट्ठू हैं या यह सब कुछ “कृत्रिम विप्लव” (मैन्युफैक्चर्ड रिवोल्ट) है मोदी और उनकी सरकार और उनकी पार्टी “डिनायल मोड़” में नहीं है?
फिर आखिर मोदी इसे रोकते क्यों नहीं? प्रश्न यह नहीं है कि संघ और उसके अनुषांगिक संगठन यह सब कुछ कर रहे हैं. संघ का राष्ट्र निर्माण की बुनियाद और भाव अलग है जो कई बार संविधान से टकराता है. विश्व हिन्दू परिषद् अगर राम मंदिर की मांग करता है तो इसमें कुछ भी नया नहीं. सरसंघचालक मोहन भागवत अगर मंदिर जीवन काल में बनाने की बात करते है तो इसमें चौंकाने की कोई बात नहीं. परन्तु सत्ता में रह कर जब कोई मंत्री डा. महेश शर्मा या कोई मंत्री जनरल वी के सिंह या कोई साध्वी निरंजन ज्योति संविधान की भावनाओं के अनुरूप बात नहीं करते तब यह माना जाता है कि या तो प्रधानमंत्री कमज़ोर हैं (जो कि वह नहीं हैं) या उनकी मौन सहमति है. अख़लाक़ के मरने पर जब दो सप्ताह प्रतिक्रिया देने में देश के प्रधानमंत्री को लगे तो सोचना यह पड़ता है कि २०१४ में जिस व्यक्ति से अपेक्षाएं की गयी थी वह निर्णय या तो गलत था या व्यक्ति बदल गया.
क्या मोदी से जन अपेक्षाएं चुनाव जीतने के बाद बदल गयी. क्या हैं ये आक्रामक हिन्दुत्त्व के नए मुद्दे और क्या इन्हें विकास के मुद्दे से जनता ज्यादा तरजीह देने लगी है? वह २०१४ के चुनाव के बाद क्या चाहती है? राम मंदिर बनवाना? गौ हत्या के खिलाफ आन्दोलन? मुसलमान लड़कों का हिन्दू लड़कियों से शादी का कुचक्र बता कर “लव जेहाद” के नाम पर एक नया “घृणा प्रतीक” खड़ा करना, जो राम—जादों को वोट न दे उसे हराम.... बताना, हर तीसरे दिन मुसलामानों को पाकिस्तान भेजना? अख़लाक़ को मारने वाली भावनाओं का उभार, देश की प्रमुख संवैधानिक, कानूनी और अर्ध-कानूनी संस्थाओं पर चुन-चुन के “अन्य” विचारधाराओं वाले लोगों के हटा कर एक ख़ास विचारधारा वाले लोगों को लाना?
आजादी के ६८ साल में तीसरी बार देश ने नरेन्द्र मोदी के रूप में किसी नेता पर अपना सब कुछ न्योछावर करने की हद तक जन-स्वीकार्यता दी. पहली जन-स्वीकार्यता नेहरु को मिली थी. जो जन –स्वीकार्यता नेहरु को मिली थी वह आजादी के जश्न के नशे में झूमती भारतीय जनता के दुलारे (डार्लिंग ऑफ़ इंडियन मासेज) के रूप में थी उनसे कोई अपेक्षा नहीं थी. नेहरु वह अपेक्षा आज़ादी दिलाकर पूरी कर चुके थे. दूसरी इंदिरा गाँधी को मिली लेकिन वह दिक्-काल सापेक्ष थी और नेहरु को मिली जन-स्वीकार्यता से अलग थी. याने १९७१ में मिली फिर १९८० में. कभी दक्षिण में मिली तो उत्तर में नहीं. और कांग्रेस पार्टी को जो वोट (औसतन लगभग ३८ प्रतिशत) मिला वह आजादी के उपहार स्वरुप दो दशक तक चलता रहा. गरीबी रहे न रहे, ये वोट कांग्रेस को मिलते रहे क्योंकि जनता को उस पर भरोसा था. अशिक्षा और गरीबी के कारण देश की सामूहिक चेतना भी उस स्तर की नहीं थी कि जनता अपने कल्याण को समझे और उसे गवर्नेंस (शासन) से सीधे जोड़ सके. लेकिन नरेन्द्र मोदी की यह जन- स्वीकार्यता अलग थी. यह सशर्त थी. और मोदी ने भी उन्हें पूरा करने के वायदे पर अपनी राष्ट्रीय छवि बनाई. मोदी के व्यक्तित्व में चार तत्व भारत की जनता ने देखा ---- सुयोग्य प्रशासक, सफल विकासकर्ता, भ्रष्टाचार के खिलाफ जेहादी और छप्पन इंच छाती की वजह से आतंकवाद का विनाशक.
क्या बेहतर न होता कि किसी एक महंत या साध्वी को माहौल खराब करने वाले बयां देने के कारण पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाता या मंत्रिमंडल से हटाया जाता यह कहते हुए कि अगर यह सब कुछ करना है तो सरकार से बाहर जाना होगा. क्या बेहतर नहीं होता कि अख़लाक़ के घर मोदी जाते और सख्त सन्देश सब को मिलता. क्या यह कह कर भाजपा अपने कर्तव्य की इतिश्री कर सकती है कि “अख़लाक़ का मरना कानून-व्यवस्था का प्रश्न है जो राज्य सरकार के दायरे में आता है?
सत्य को झुठलाकर टी वी चैनेलों के स्टूडियोज में तो भाजपा के अहंकारी प्रवक्ता गाल बजा सकते हैं और मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को अपनी वाकपटुता से इम्प्रेस कर सकते हैं लेकिन ताज़ा गुजरात के चुनावों में ग्रामीण क्षेत्रों में हार ने ने १९ महीने में तीसरी बार संकेत दिए हैं. अनसुना कर सकते हैं सत्ता में बैठे लोग, पर जनता बेहद निराश होगी और शायद दोबारा किसी नेता पर इस तरह का भरोसा नहीं करेगी.
lokmat
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