Tuesday, 3 November 2015

“वैचारिक द्वन्द” का इस स्वरुप से देश का अहित




मात्र ७२ घंटों के भीतर भारत को लेकर अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर दो परस्पर विरोधाभासी रिपोर्टें आयीं. “बिजनेस” करने को लेकर सहज़ता और सुविधाओं के पैमाने पर विश्व बैंक की ताज़ा रिपोर्ट ने भारत को पहले से लेकर बेहतर माना और दुनिया के देशों में १२ खाने ऊपर कर दी इसकी रैंकिंग. एक अच्छा संकेत था. लेकिन वहीं दूसरी ओर प्राइवेट रेटिंग संस्था मूडी’ज ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगाह किया कि वे अपने लोगों पर लगाम लगाये वरना विश्वसनीयता का संकट पैदा हो सकता है.

देश में स्पष्ट रूप से दो परस्पर विरोधी विचारधारायें टकराव पर हैं. स्वस्थ प्रजातंत्र में जन-संवाद के धरातल पर यह अच्छा संकेत है. पर जब विचारधाराओं की टकराहट की परिणति “गवर्नेंस” की विश्वसनीयता पर संकट पैदा करने लगे तो उससे विकास अवरुद्ध होने लगता है और व्यवस्था की समस्या जन्म लेती है. वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के एक ऐसे दौर में जब कोई भी राष्ट्र अर्थ-व्यवस्था को लेकर “सुतुर्मुर्गी अलगाव” में जिन्दा नहीं रह सकता, भारत को लेकर सन्देश गलत जा रहा है. देश को एक नेतृत्व मिला है जिसकी विकास को लेकर समझ अप्रतिम है और जो इसे अंजाम भी देने की क्षमता रखता है. फिर क्या यह उचित नहीं होगा कि अगले चार साल के लिए वैचारिक लड़ाई का स्वर इतना उन्मादी न होने दिया जाये कि विश्व परिदृश्य में गलत सन्देश जाये. फिर लड़ाई तो देश में दो विचारधाराओं की है न कि विकास को लेकर ?  

वित्त मंत्री अरुण जेटली की परेशानी समझी जा सकती है. और यही कारण है उन्होने दोनों बातों का संज्ञान लिया. द्वंदात्मक प्रजातंत्र में वैचारिक रस्साकशी चलती रहती है पर जब उसका सन्देश गवर्नेंस की विश्वसनीयता या सामाजिक वैमनस्यता के वैश्विक प्रचार के रूप में होने लगे तो विचारधाराओं के पुरोधाओं को सोचना पडेगा. क्या वाकई देश में लोग एक दूसरे के खिलाफ सडकों पर लाठी लेकर खड़े हैं ? अगर नहीं तो मूडी’ज क्यों मान रहे हैं कि भारत में कुछ गड़बड़ हो रहा है और इसे ठीक करना होगा? विचारधाराओं की लड़ाई के लिए हमारे पास एक विकसित मीडिया तंत्र, सेमिनार में बोलने और लेख लिखने के अलावा सोशल मीडिया है. न तो अवार्ड लौटने की ज़रुरत है ना हीं सड़क पर आने की. जो विचारधारा बलवती होगी वह २०१९ के चुनाव में अपना प्रभाव दिखा देगी. हालांकि हकीकत यह है कि मूडी’ज की राय लोगों सम्मान लौटाने से कम बल्कि दादरी जैसी घटनाओं से बनी है.  
      
थोडा और गहरा विश्लेषण करें तो पाएंगे कि विचार असहिष्णु तो होता ही है क्योंकि विचार तब बनता  है जब उसके प्रति प्रतिबद्धता आती है. और प्रतिबद्धता होगी तो द्वन्द का भाव होगा जिससे असहिष्णुता जन्म लेगी. अगर दूसरे के विचार ग्राह्य बन जाये तो पहला वाला विचार विचार हीं नहीं होता. समस्या तब पैदा होती है जब कोई राहुल गाँधी, कोई ओवैसी या कोई गिरिराज सिंह, साध्वी या संगीत सोम गलत समझ के कारण इस वैचारिक असहिष्णुता को राजनीति में तब्दील करते हैं. और तब जन-धरातल पर जुमले आते है और कोई इसे “पाकिस्तान भेजना” मानने लगता है या “१५-मिनट के लिए पुलिस हटा लो फिर देखो” या “फिर मुज़फ्फरनगर” करने की धमकी देने लगता है.      

जेटली ने अपने लेख में इसका बेबाकी से संज्ञान लिया है. हालाँकि वह पक्ष इतना प्रचारित नहीं हुआ जिनता उनका “वैचारिक असहिष्णुता” या “मैन्युफैक्चर्ड रिवोल्ट” (कृत्रिम विप्लव). उन्होंने उसी चिंता से यह भी कहा कि वे सभी लोग जो भारत के और सरकार के शुभेच्छु हैं वे एेसे बयान न दें या ऐसे कृत्य न करें जिनसे उन ताकतों को जो भारत के विकास की विरोधी हैं कोई मौक़ा मिले.

समस्या कहाँ है. देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में विकास को लेकर अद्भुत समझ है. आधुनिक भारत में शायद हीं कोई ऐसा नेता होगा जो विकास के व्यावहारिक पहलुओं को इतनी गहराई से समझता होगा.
शायद जेटली का संकेत भी इसी तरफ है. क्या नरेन्द्र मोदी को मात्र पांच साल नहीं दिए जा सकते थे ? क्या “लव जेहाद” और “घर वापसी” को मात्र पांच साल नहीं रोका जा सकता था? क्या जबरदस्त विकास करके पांच साल बाद फिर इसी जनता के पास गवर्नेंस की अद्भुत मिसाल ले कर नहीं जाया जा सकता था?

दूसरी तरफ “सेक्युलर बुद्धिजीवियों” से यह अपेक्षित है कि वैचारिक स्तर पर जम कर विरोध करें लेकिन यह विरोध तब भी हो जब कोई मुलायम सिंह, दिग्विजय सिंह, ओवैसी, लालू या आज़म “आतंकवादियों” में अल्पसंख्यक देखने लगता है याने १४.२ प्रतिशत “सॉलिड वोट”. इन बुद्दिजीवियों का यह भी कर्तव्य है कि तथाकथित “सेक्युलर” विचारधारा अगर आतंकवाद का चारागाह बन रही हो तो उसे भी उसी शिद्दत से उठायें जिस शिद्दत से आज पुरस्कार लौटा रहे हैं. विरोध तब भी होना चाहिए जब संप्रदाय-विशेष के वोट के लिए मुलायम सिंह –अखिलेश की सरकार मुरादाबाद में डी आई जी ़को पीट-पीट कर मरणासन्न करने वाले सम्प्रदाय विशेष के युवाओं पर से केस ख़त्म करने की अर्जी कोर्ट में डालती है या कांग्रेस का एक मुख्यमंत्री हैदराबाद में गोकुल स्वीट्स ब्लास्ट के मामले में सपष्ट साक्ष्य  के बाद भी एक मुहल्लें में आरोपियों के छिपे होने के बावजूद छापा मारने से मना कर देता है. विचारधारा के प्रति प्रतिबद्धता की कुपरिणति अगर आतंकवादी के प्रति उदारता में हो तो कुछ हीं साल में वह विचारधार धीरे-धीरे जनता द्वारा ख़ारिज कर डी जाती हैं. और दूसरी विचारधारा अपनी पैठ बना लेती है. भारतीय जनता पार्टी के उदय और कांग्रेस के पराभव के पीछे यही कारण रहे हैं. लेकिन मोदी की जन-स्वीकार्यता इन सब से परे कुशल-प्रशासक, भ्रष्टाचार के प्रति शून्य –सहिष्णुता और सक्षम विकासकर्ता की उनकी छवि के रूप में हुई है. और सेक्युलर बुद्धिजीवियों को उन्हें उस पैमाने पर तुलना होगा. साथ हीं आक्रामक हिंद्त्व के अलंबरदारों को जाने-अनजाने में “सेल्फ-गोल" से बचना होगा.      

lokmat
    

2 comments:

  1. लेखक एक बरिष्ठ पत्रकार हैं परन्तु इस लेख में मोदी के वकील के रूप में दिखाई देते हैं सवाल यही है के आपातकाल के दौरान क्या सरकारी सेवाओं में गुणात्मक सुधार नहीं आ गया था फिर बुद्धिजीविओं ने विरोध का स्वर क्यों मुखर किया था.दस साल चलने देते फिर देश विकसित हो जाता तो वैचारिक मतभेद का सवाल उठाते.देश के तमाम इलाकों में पत्रकार मारे जा रहे हैं फिर प्रजापति को ही क्यों हटाया जाये? अखिलेश ने मंत्रिमंडल विस्तार में ठेंगा दिखाते हुए प्रजापति को बरक़रार रखा. पत्रकार के परिवार ने न्याय के ऊपर धन को बरियता दे कर सरकार को कृतार्थ कर दिया.अत्याचार के विरुद्ध विरोध का समय निश्चित नहीं किया जा सकता.जनता ने मोदी को मात्र छ महीने में ही नकार दिया था .जिन कन्धों पर सवार हो कर वह सत्ता की दहलीज़ पर पहुंचे थे उसे जल्दी है अपनी पूंजी सूद समेत वापस लेने की.सत्ता रहे या भाड़ में जाये

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  2. ये एक निष्पक्ष लेख है..कमेंट करने वाले भाई का लगता है मोदी जी से 36 का आंकड़ा है..तभी वो एक संतुलित और बेबाक लेख को पैरोकारिक मान रहे हैं..बहरहाल लोकतंत्र में सबको अपनी बात कहने का हक है...

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