प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर अपने को जनता के संदेह के घेरे से ऊपर कर लिया। "मन की बात" के दूसरे प्रसारण में यह बताते हुए कि विदेशों में जमा कालाधन गरीबों का पैसा है और उसे वापस देश में लाना "मेरे लिए आर्टिकल ऑफ फेथ" है। कालेधन को लेकर सरकार के रवैये पर जो शंका पैदा हुई थी, वह एक बार फिर जाती रही। जनता भावुक है और विश्वास भी करती है लेकिन इसकी भी मियाद होती है। देखना है कि इसे कार्यरूप कब और कैसे दिया जाता है।
जरूरत है "सफाई आंदोलन" की
एक सवाल आज भी अतिशय भावातिरेक में जनता भले ही ना पूछ रही हो पर वह सवाल मन के कोने में बना है। काले धन का मात्र 10 प्रतिशत ही विदेश में है पर बाकी 90 प्रतिशत जो देश में पैदा होता है और पूरी अर्थव्यवस्था को दीमक की तरह चाट रहा है उसका क्या? मोदी जी के मन से यह भी उजागर होना चाहिए था कि देश के सकल घरेलू उत्पाद को जो आधे से ज्यादा कालाधन के रूप में बदल जा रहा है उस पर क्या सरकार "सफाई आन्दोलन" की ही तरह कोई ठोस कदम उठाएगी?
बड़ी जद्दोजहद के बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कालाधन खाताधारकों के नाम तो दिए पर शपथ पत्र में यह भी कहा था कि अगर नाम जनता में आए तो बाहरी देश वादाखिलाफी का आरोप लगाएंगे।
पर गौर से देखें तो हकीकत इसके उलट है। अमरीकी कोर्ट में जब यही तर्क यूबीएस बैंक ने दिया तो न केवल अदालत ने इस तर्क की धज्जी उड़ा दीं बल्कि उस पर फाइन भी ठोक दिया था। आज सरकार की नैतिक जिम्मेदारी आम आदमी के प्रति ज्यादा है या किसी कागज के टुकड़े के प्रति, जिसमें उसने कुछ करार तमाम देशों से किए थे?
अगर अन्य देश ऎसे करार को तोड़कर इन बैंकों के रवैये को पटरी पर ला रहे हैं तो भारत सरकार इतना क्यों हिचक रही है। कालेधन पर सरकार को शुरू से ही आंदोलनरत रवैया अख्तियार करना चाहिए था, जो कि अभी नजर नहीं आया। सरकार की ओर से किया गया करार बाहर जमा हुए सफेद धन को लेकर था न कि कालेधन पर।
कालाधन तो इसकी जद में आता ही नहीं है, क्योंकि यह तो स्वत: ही अपराध की श््रेणी में आता है। लिहाजा जरूरत इस बात की थी कि एसआईटी शुरू से ही चार महीने में न केवल 627 नामों पर बल्कि उन तमाम लोगों पर, जिन पर शक है, एक कार्रवाई शुरू करती, जो कि अभी तक नहीं हो रही है।
...तो होते सात गुना अमीर
अगर भारत में काले धन पर अंकुश पिछले 45 वषोंü से लगाया गया होता तो यहां रहने वाला हर व्यक्ति सात गुणा अमीर होता। कहना न होगा कि गरीबी का यह विदू्रप चेहरा दिखाई नहीं देता। आज स्थिति यह है कि हर रोज जब एक गरीब रात में सोने जाता है तो कोई 15 रूपए जो उसके विकास में खर्च किया जा सकता था, कालेधन के रूप में विदेशी बैंकों में गुप्त रूप से जा चुका होता है।
स्थिति की भयावहता इस बात से जानी जा सकती है कि 1955-56 में, अर्थशास्त्री कारीडोर के अनुसार देश में कालाधन मात्र 4 से 5 प्रतिशत था, जो 1970 में वांगचू समिति के आकलन के अनुसार 07 प्रतिशत हो गया।
बात यहीं नहीं रूकी और 1980-81 मे नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस के अनुसार यह प्रतिशत 18 से 20 हो गया। अनुमान है कि आज देश की जीडीपी का 50 प्रतिशत कालेधन के रूप में परिवर्तित होने लगा है।
मोदी के वादे पर सवाल
विदेशों में छिपाया काला धन लाने के मुद्दे पर पहली बार केंद्र सरकार की मंशा पर अंगुली उठने लगी है और इसकी आंच प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तक पहुंच सकती है। वित्तमंत्री अरूण जेटली का तर्क लोगों को रास नहीं आ रहा है।
उदाहरण के लिए स्विट्जरलैण्ड के साथ जिस डीटीएए (डायरेक्ट टैक्स अवॉयडेंस एग्रीमेंट) के अनुच्छेद 24 की बात कहकर जेटली मोदी सरकार को भी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के समकक्ष खड़ा कर रहे हैं और मोदी के प्रति जनता के मन में शंका उत्पन्न होने लगी है वह एक गलत तर्क है। 72 लोगों में 17 ऎसे लोग हैं, जिन पर पहले से ही मुकदमे की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और उनके नाम उजागर करने में कोई अड़चन नहीं है।
साथ ही बाकी के 55 लोगों पर तत्काल मुकदमें की प्रक्रिया शुरू करके इस अनुच्छेद के प्रावधानों को निरस्त किया जा सकता है, क्योंकि इसी अनुच्छेद के पैरा (2) में जननीति के तहत अगर किसी व्यक्ति पर मुकदमे की प्रक्रिया शुरू हो गई है तो उसका नाम उजागर किया जा सकता है। पर क्या हुआ नरेन्द्र मोदी का 100 दिन में कालेधन को विदेश से वापस लाने के वादे का? क्या यह अनुच्छेद उस समय नहीं था, जब यह वादा किया गया था?
आखिर इसे कैसे रोकेंगे
जनता ने वोट मोदी को दिया है लिहाजा आज सवाल भी उन्हीं से पूछे जाएंगे। आज मुद्दा सिर्फ इतना ही नहीं है कि कालाधन वापस कैसे लाएं? असली मुद्दा यह है कि आज से इसको रोका कैसे जाए और इसके लिए क्या-क्या कदम उठाए जाएं। जब सरकार पुराना कालाधन वापस लाने में ही अपेक्षित दिलचस्पी नहीं ले रही है तो वर्तमान कर ढांचे को सख्त बनाने में कितना सक्रिय होगी यह देखना अभी बाकी है।
सर्वोच्च न्यायालय में जो बेचारगी का भाव से सरकार ने दिखाया है उसने शायद इस "अभियान" को एक बड़ी क्षति पहुंचाई है। इस हलफनामे के बाद जब कभी भारत की सरकार विदेशी बैंकों से नाम या जमा धन राशि के आंकड़े मांगेगी तो उसका जवाब एक ही होगा - "आपने स्वयं ही अपने सर्वोच्च न्यायलय में इस अनुबंध के प्रावधान का उल्लेख करते हुए कहा है कि नाम उजागर नहीं किए जा सकते तो हमसे यह क्यों मांग रहे हैं?" प्रधानमंत्री के महज यह कहने से कि "न खाऊंगा न खाने दूंगा" जनता हफ्ते-दो हफ्ते तो खुश नजर आएगी पर उसके बाद परिणाम के बारे में भी पूछना शुरू करेगी।
पर उम्मीद मोदी से ही है
देश के अधिकांश बुद्धिजीवियों से लेकर सड़क पर खोमचा लगाने वाले तक को मोदी में एक ऎसा नेता दिखाई दे रहा है जो देश के भविष्य को बदल देगा। दशकों बाद किसी नेता के लिए यह भाव आया है अन्यथा देश "कोऊ नृप होहीं हमें का हानि" के मोड में चला गया था। इतिहास गवाह है एक नेता, उसके द्वारा विकसित सिस्टम या उसकी नीतियों ने पूरे समाज को नयी ऊंचाइयों पर पहुंचाया है। नेता में हमें भरोसा होना तो जरूरी है, पर इस भरोसे को हर क्षण तर्क पर भी कसा जाना चाहिए।
patrika
No comments:
Post a Comment