ओटो वान बिस्मार्क ने कहा था “अ जर्नलिस्ट इस वन हू हैज फॉरगॉटन हिज कालिंग” (पत्रकार वह है जो अपना पेशा भूल गया है).
डॉक्टर वेद प्रताप “वैदिक” हम सभी पत्रकारों की तरह सामान्य से व्यक्ति हैं. उन्हें ना तो महिमामंडित करके देखने की ज़रुरत है ना हीं उन्हें “रावण” बनाने की. मानवोचित गुण-दोष के पैरामीटर पर देखने से स्थिति ज्यादा स्पष्ट हो सकती है. उनका टीवी चैनलों में यह कहना कि “नरसिंह राव के ज़माने में उन्हें “डेप्यूटी प्राइम मिनिस्टर” कहा जाता था” उनकी मनोदशा बताता है. उनका साथ हीं यह कहना कि देश के हीं नहीं विदेश के भी कई प्रधानमंत्रियों से उनकी दोस्ती है उसी मनोदशा का इजहार है. एक पत्रकार अगर गलती से भी सत्ता के औपचारिक पदों पर अनौपचारिक रूप से अपनी भूमिका देखने लगता है या इसके गलत या सही जन-आभास का प्रतिकार नहीं करता या तत्काल उस छवि से बचना नहीं चाहता तो वह इस मनोदशा का शाश्वत शिकार हो जाता है. सत्ता के बेहद नजदीक जाने पर अधिकतर मामलों में पत्रकारों में यह मनोदशा विकसित होती है.
यह मनोदशा दिल्ली या राजधानियों के तमाम पत्रकारों में अलग-अलग अंश में देखी जा सकती है. एक टीवी चैनल का सत्ता पक्ष कवर करने वाला दिल्ली का सीनियर रिपोर्टर जब यह कहता है कि “आरोपों से घिरे अमुक मुख्य मंत्री मेरे पीछे पड़े है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से कह कर मुझे बचा लो” तो यह इस मनोदशा के शुरुआती संकेत हैं. जब वह अपनी शादी या अन्य छोटे-मोटे पारिवारिक कार्यक्रमों में सत्ताधारी मंत्रियों या राजनेताओं को बुलाने में ज्यादा दिलचस्पी रखने लगे तो भी यह संकेत मिलने लगते हैं. बड़े सत्तानशीन नेताओं को घर पर खाने पर बुलाना भी इसी श्रेणी में आता है. छोटे नेताओं और अधिकारियों को “विजिट प्रोटोकॉल” के जरिये पता चलता है और उस पत्रकार की छवि बदलने लगती है. वह अपने मूल कर्तव्य से उसे दूर करती जाती है.
चूंकि हमारे देश में हमने द्वंदात्मक प्रजातंत्र का फॉर्मेट अंगीकार किया है लिहाज़ा विपक्ष की तरह मीडिया की भूमिका मुख्यतौर पर सत्ता पक्ष के खिलाफ होती है. ऐसे में सत्ता पक्ष के बेहद नज़दीक होना या लम्बे समय तक नज़दीक होना मूलरूप से गलत है. जीराल्ड प्रेस्टलैंड का एक मशहूर कथन है “पत्रकार अक्सर गटर में पाया जाता है क्योंकि इसी जगह सत्ताधारी वर्ग अपने कुकृत्य फेंकता है”. पत्रकार का सही मकाम नरसिंहराव के शासनकाल में उपप्रधानमंत्री कहलाने में नहीं बल्कि सत्ताधारियों कोप भजन होने में है. बेचारे वैदिक इस बार विपक्ष के हीं नहीं सत्ता पक्ष के भी कोप भजन बन गए हैं.
इस मनोदशा की पैदाइश का मूल कारण है वह ग़लतफ़हमी कि सत्ता में बैठा व्यक्ति और वह समकक्ष हैं क्योंकि सत्ताधारी उससे घुलमिल कर बात करता है. वह यह भूल जाता है कि इस घुलने-मिलाने की अगर एक लक्ष्मण रेखा स्वयं नहीं बनाई गयी तो उसके यहाँ सिफारिशी लोग का जमवाड़ा तो लग जाएगा पर वह पत्रकारिता के मूल-कर्तव्य से दूर होता जाएगा क्योंकि उसकी निष्पक्षता पर आंच आनी शुरू हो जायेगी.
इसका एक और संकट यह है इस मनोदशा में पत्रकार यह भूल जाता है कि वह कब निष्पक्ष पत्रकार है और कब दोस्त. जनता को भी यह समझ में नहीं आता कि उस पत्रकार की खबर किस भाव में लिखी या दी गयी गयी है.
वैदिक एक डेलीगेशन के साथ पाकिस्तान गए यह उपक्रम घोषित पत्रकारिता के पैरामीटर से बाहर का कृत्य है. समाज-सुधार, दो देशों की बीच अच्छे सम्बन्ध का प्रयास, आतंक हाफिज सईद का ह्रदय-परिवर्तन आदि पत्रकारिता के स्थापित मानदंडों के बाहर के कार्य हैं. ये सारे कार्य प्रत्रकारिता की सीमा में में रहकर भी अपनी लेखनी या टीवी रिपोर्ट से किये जा सकते हैं. विदेशों में पत्रकारिता करने जाने की एक अलग व्यवस्था है. उसमे अपने देश में पहले से यह बताया जाता है कि “मैं पत्रकारिता के उद्देश्य से या इंटरव्यू (अगर ज़रुरत हो तो बगैर नाम बताये) लेने के लिए जा रहा हूँ”. इंटरव्यू के लिए कुछ उपादान होते हैं. मसलन प्रिंट है तो टेप-रिकॉर्डर, कलम . प्रश्नावली अगर टीवी है तो कैमरा, कैमरामैन आदि-आदि.
अगर इंटरव्यू की जगह अनौपचारिक बातचीत है तो भी पत्रकार को मनाही नहीं है लेकिन फिर वह ना तो वह पत्रकारिता कही जा सकती है ना हीं उस मुलाकात की विषय-वस्तु का जिससे मुलाकात हुई है उसके नाम से औपचारिक रूप से जिक्र किया जा सकता है. रिपोर्टिंग में एक सर्व-मान्य संस्था है “विश्वस्त सूत्र”. यह तब प्रयोग किया जाता है जब कोई हाफिज सईद या कोई प्रधानमंत्री या मंत्री या अधिकारी पत्रकार से अनौपचारिक बात तो करता है और यह भी चाहता है कि उसकी बात बगैर उसे उद्धृत किये हुए जन-धरातल पर डाल दी जाये.
इस पैरामीटर पर वैदिक एक डेलीगेशन के सदस्य के रूप में जाना और फिर अचानक हाफिज सईद से मिलना पत्रकार का इंटरव्यू नहीं था. लेकिन हाफिज का भारत के बारे में भाव, तमाम मुद्दों के बारे में कथन वैदिक अगर भारत में आ कर जन –धरातल पर डालते हैं तो कहीं कोई गलती नहीं है. शर्त महज यह है कि हाफिज उसका खंडन न करे (क्योंकि वैदिक के पास कोई प्रूफ नहीं है).
एक अन्य खतरा भी है हाफिज-वैदिक बातचीत को तरजीह देने में. वैदिक की वरिष्ठता, समझ, आचरण या राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता परन्तु मान लीजिये इसी फॉर्मेट पर मुलाकर करके एक कम समझ वाला पत्रकार जिसे उर्दू का ज्ञान कम है भारत आ कर कहता है कि “हाफिज ने कहा है भारत पर लश्कर एक बड़े हमले की तैयारी कर रहा है और पाकिस्तान के हुक्मरान और सेना भी इस अभियान के लिए हामी भर चुके है”. क्या इससे भारतीय सेना में सनसनी नहीं फैलेगी ? क्या इससे भारत-पाक संबंधों पर असर नहीं पडेगा? कश्मीर पर वैदिक का कथन किसी एक सामान्य व्यक्ति के कथन के रूप में पाकिस्तान को भी लेना होगा क्योंकि जो उन्होंने कहा है वह ना तो भारत का न हीं संविधान का, ना हीं संसद का और ना हीं देश का मंतव्य है.
लिहाज़ा वैदिक की मुलाकात को नज़रंदाज़ करना होगा. बैक-चैनल डिप्लोमेसी की दूकान बंद करनी होगी. क्योंकि कोई नहीं जानता कौन सा स्वयंभू डेलीगेशन भारत को पाकिस्तान के नाम लिख आये या कौन सा आई एस आई या रॉ किस यात्रा को किस तथाकथित स्वयंसेवी संस्था से फण्ड करवा रहा हो. वैदिक के खिलाफ बन रहा वातावरण उतना हीं गलत है जितना वैदिक का औपचारिक और अनौपचारिक भूमिका में झूलना. वैदिक प्रकरण से देश के सभी पत्रकारों को एक नसीहत भी मिलती है कि सत्ता के प्रति नजदीकी की एक सीमा है दीर्घकालीन विश्वसनीय पत्रकारिता के लिए. शिव सेना या अन्य दलों का वैदिक पर राष्र्ट-द्रोह का आरोप लगाना या संसद में हंगामा करना भी राजनीतिक वर्ग के उसी मानसिक दिवालियेपन का मुजाहरा है.
lokmat
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