कांग्रेस के सेल्फ-गोल का
नया नमूना है दिग्विजय-कपिल का न्यायपालिका पर आक्षेप
कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व
में यू पी ए -२ का शासन लगभग अवसान पर है. भ्रष्टाचार, कुशासन और संस्थाओं को
तोड़ने-मरोड़ने के आरोपों के बीच इसके दो नेताओं – दिग्विजय सिंह और मंत्री कपिल सिब्बल
में सेल्फ-गोल की अद्भुत क्षमता है. दोनों ने अबकी बार सुप्रीम कोर्ट को अपने
निशाने पर लिया है –कुतर्कों के सहारे. दिग्विजय का कहना है कि सर्वोच्च न्यायलय
ने अपनी टिप्पणियों के ज़रिये (तोता प्रकरण) सी बी आई जैसी संस्था का मनोबल नीचा
किया है जबकि सिब्बल ने इस बात पर जोर दिया है कि न्यायपालिका में जनता का विश्वास
और मजबूत करना होगा. मतलब यह कि फिलवक्त न्यायपालिका में जन-विश्वास अपेक्षित नहीं है. तर्क-शास्त्रीय
रूप से इसका मतलब यह भी है कि कार्यपालिका और विधायिका में जनता का अपेक्षित
विश्वास जनता का है.
क्या दोनों नेताओं का कथन
हास्यास्पद नहीं है. सी बी आई का मनोबल तब गिरता है जब कमरे में बुलाकर मजमून
बदलवाए जाते है और तब भी जब भ्रष्टाचार का आरोप दो-दो मंत्रियों पर हीं नहीं
परोक्ष रूप से कार्यपालिका के सर्वोच्च पद –प्रधान मंत्री -पर लगता है. सिब्बल ने
यह भी कहा कि कानून की प्रक्रिया आर्थिक विकास में बाधक नहीं होनी चाहिए. मतलब कि
न्यायपालिका वर्तमान आर्थिक विकास की नीतियों में बाधक है. यानि राजा हो या बंसल,
इन्हें खुली छूट होनी चाहिए “आर्थिक विकास करने देने की.
कोई ढाई हज़ार साल पहले
विख्यात दार्शनिक प्लेटो की ताकीद थी “
बुद्दिमानों की सबसे बड़ी सजा यह होती है कि वे बुरे लोगों का शासन झेलें क्योंकि
उन्होंने स्वयं शासन में भाग लेने से इनकार किया”. गाँधी ने इसे प्रकारांतर से कहा
“ आप जिस तरह की दुनिया चाहते हैं उसके लिए स्वयं अपने को बदलें”.
इस प्रजातंत्र के मंदिर --लोक
सभा-- में ५४३ सदस्यों में १६३ आपराधिक मुकदमों में फंसे हैं. ये लोग बन्दूक के बल
पर नहीं आ गए हैं. ये जनता द्वारा चुने गए हैं. इनमें १०३ पर गंभीर किस्म के आरोप
हैं और इनमे से ७४ पर जघन्य (हीनस) किस्म के. “एथिक्स” शब्द यूनानी मूल शब्द
“एथिकोस” से बना है जिस का मतलब होता है “आदत से पैदा हुआ”. शायद हमारी आदत बदल
गयी है. अन्यथा ९० वें दशक के पूर्वार्ध में हवाला काण्ड में केंद्र के सात मंत्री
और एक नेता विरोधी दल (लोक सभा) एक झटके में इस्तीफा न देते. मामले का नतीजा अदालत
में सिफर इसलिए रहा कि सी बी आई ने जांच में “अपेक्षित साक्ष्य” नहीं दिए और जिसके
लिए सर्वोच्च न्यायलय ने सन १९९७ में सी बी आई को कड़ी फटकार हीं नहीं लगायी इसे
सीधे केंट्रीय सतर्कता आयोग के अधीन काम करने को कहा और एक जबरदस्त दिशा- निर्देश
भी दिए. यह फैसला अपने आप में कानून की ताक़त रखता था. लेकिन चूंकि आदत राज्य
अभिकरणों को अंगूठे के नीचे रखने की थी इसलिए सुरमे कोर्ट के फैसले को रद्दी की
टोकरी के हवाले कर दिया गया. नैतिकता का पैमाना भी इस दौरान बदल गया इसलिए वह
क़ानून खोजा जा रहा है जिसके तहत सरकार के कानून मंत्री को हीं नहीं आरोप में घिरे
कोयला मंत्रालय और प्रधान मंत्री कार्यालय को भी यह अधिकार हो कि सी बी आई को आदेश
दे सके. सर्वोच्च न्यायलय के आदेश के बावजूद
सी बी आई भी वहीं, संस्थाएं भी वहीं और समूची सरकार भी वहीं और ज़ाहिरन
प्रधानमंत्री भी वहीं.
“आदत से पैदा हुआ
भ्रष्टाचार” हमरे खून में शुरूआती दौर के “रिटेल में भ्रष्टाचार” से बढ़ सिस्टमिक
भ्रष्टाचार” बनकर दौड़ता रहा. यह जीवन-पध्यती बन गया. भारत सरकार की २००७ की “शासन
में नैतिकता” सम्बन्धी रिपोर्ट में इसे “कोल्युसिव” (मिलजुल कर) भ्रष्टाचार की
संज्ञा दी. आज़ादी के प्रारंभ के कुछ दशकों तक यह भ्रष्टाचार “कोएर्सिव” (भयादोहन)
के रूप में रहा जिसके तहत कमजोरों या गरीबों से उनके सही काम करने के पैसे लिए
जाते थे यह कह कर कि “नहीं करेंगे तो क्या कर लोगे”. बाद में जब सत्ता के हाथ में
“विकास” का कार्य आ गया और बजट के माध्यम से लाखों करोड़ रुपये आने लगे तो
अफसर-नेता गठजोड़ को लगा “क्या मिलता है भोली-भाली जनता से चार-चार पैसे लूटने में
और फिर हल्ला भी ज्यादा होता ”. और तब जन्म हुआ “कोल्युसिव” (मिल-जुल कर) किस्म के
भ्रष्टाचार का. २-जी, सी डब्ल्यू जी, कोयला घोटाला इसी अफसर-नेता कोल्युसिव ज्ञान
की उपज हैं. इस किस्म के भ्रष्टाचार में एक कमजोर या गरीब व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा
समाज हीं परोक्ष रूप से प्रभावित होता है लेकिन इसमें कोई एक व्यक्ति नहीं शिकार
होता. चूंकि नार्थ ब्लाक के कार्यालय में (जहाँ परिंदा भी पर नीहें मार सकता)
डीलें होती है इसलिए गवाह नहीं होता. हमारी अपराध न्याय प्रणाली गवाह, व साक्ष्य
पर आधारित है और जज सत्य का खोज नहीं बल्कि अंपायर का काम ज्यादा करता है इसलिए
भ्रष्टाचारी मंत्री को मौका मिलता है “दूध
का दूध” का जुमला फेंक कर पद बने रहने का.
सुशासन के सिद्धांतों में
एक के अनुसार नैतिक मान-दंड अगर संस्थाओं का बल ना मिले तो धीरे-धीरे दम तोड़ देते
हैं. चूंकि भारत का भ्रष्टाचार नए स्वरूप --- कोल्युसिव – में फलने –फूलने लगा अतः यह
ज़रूरी हो गया कि इन संस्थाओं को पंगु बनाया जाये. ये पंगु होंगे तो नैतिक
मान-डंडों को सहारा देने वाला कोई नहीं होगा. नतीज़तन जजों को, आई बी और सी बी आई
निदेशकों को, “बात-मानने के लिए विश्वसनीय” अफसरों को रिटायरमेंट के बाद पांच साल के
लिए घोड़ा-गाडी और लाल-बत्ती के साथ हीं मोटी आय की व्यवस्था की जाने लगी. जब
सर्वोच्च अदालत ने हवाला फैसले में “सिंगल डायरेक्टिव” (जिसके तहत सी बी आई
संयुक्त सचिव या ऊपर के अधिकारी के खिलाफ जांच के पहले सरकार से अनुमति लेनी होती
है) को गैर-कानूनी बताया तो तत्कालीन संसदीय समिति ने फिर से सी वी सी विधेयक में
दुबारा इस प्रावधान को ला कर २००३ में कानून बना दिया. सी बी आई फिर दन्त –विहीन संस्था हो गयी. मायावती
के खिलाफ जांच के लिए सी बी आई की अपील पर तत्कालीन राज्यपाल ने अनुमति नहीं दी .
हमने आज़ादी मिलने के साथ
हीं व्यापक तौर पर ब्रिटेन के प्रजातंत्र व प्रशासनिक व्यवस्था का अनुकरण किया.
लेकिन उनके समाज का “एथिक्स” या “आदत से पैदा हुई नैतिकता” और हमारी “आदत से पैदा हुई नैतिकता में फर्क था
और है. एक उदाहरण लें. कुछ साल पहले टोनी ब्लेयर की सरकार के दो मंत्रियों को महज
इस आरोप पर इस्तीफा देना पड़ा कि एक मंत्री के कार्यालय से एक फ़ोन किया गया था
जिसमें मंत्री के बच्चे की आया (दाई) को वीसा जल्दी देने की सिफारिश की गयी थी और
दूसरे मंत्री के कार्यालय से यह सिफारिश की गयी थी कि एक व्यक्ति को जो सरकार के
एक जनोपयोगी कार्यक्रम में चंदा देता था, उसे ब्रिटेन की नागरिकता दे दी जाये. इन
मंत्रियों ने ना तो “दूध का दूध , पानी का पानी” होने का या जांच रिपोर्ट का इंतज़ार किया ना हीं “अंतिम अदलत
के फैसले का”, ना हीं “मैं स्वयं किसी भी जांच के लिए तैयार हूँ “ का भाव ले कर
देश की छाती पर मूंग दलते रहे.
६२ साल पहले नेहरु ने एच जी मुद्गल को ना केवल
संसद सदस्यता से निकाला बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि यह इस्तीफ़ा दे कर ना निकलने
पाए. मुद्गल पर आरोप इतना हीं था कि उन्होंने पैसे लेकर सर्राफा व्यापारियों के
लिए संसद में सवाल पूछा था.
इन ६२ सालों में देश का जी
डी पी बढ़ता गया, कारें बदती गयी और आदतों से पैदा हुए नैतिकता का अवसान और तज्जनित भ्रष्टाचार भी
बढ़ता गया. “भारत महान” के कर्णभेदी नारे में गरीब की चीत्कार दबाती रही. शासन की
गुणवत्ता तिरोहित होती गयी.
आज ज़रुरत है कि अच्छे लोग
शासन प्रक्रिया से भागें नहीं बल्कि भाग लें ताकि बुरे लोगों को इससे छुटकारा
दिलाया जा सके.
bhaskar
Judicial discretion is valid source of law but not the substitute of legislative power of Parliament. Judiciary don't stand on better footing if corruption is the issue.Media has the responsibility to educate the masses but they too are engaged in the game and enjoying the fruits. Society invents its own way to rectify the system that may be violent revolt or any other way.
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