लगभग ६५ साल के आजादी के बाद देश में राजनीतिक
संवाद का धरातल बदल गया है. आज से कुछ दशक पहले तक विकास, गरीब, मानव विकास,
शिक्षा और खाद्य केंद्र सरकारों का हीं मुद्दा होते थे. इन्दिरा गांधी ने सातवें
दशक के पूर्वार्ध में “गरीबी हटाओ” का नारा दिया, प्रिवी पर्स ख़त्म किया और बैंकों
का राष्ट्रीकरण किया. हालाँकि तब तक जन-आक्रोश अपनी चरम पर पहुँचाने लगा था और देश
में सत्ता वर्ग ने कुछ हीं वर्षों में जयप्रकाश नारायण-नीत देशव्यापी आन्दोलन के
मद्दे नज़र इमरजेंसी लगायी. गरीबी हटाओ का नारा कभी सत्ता पाने की राजनीतिक होड़ में
ओझल होता गया और कभी भ्रष्टाचार की भेट चढ़ता गया. राजीव गाँधी को कहना पड़ा “रुपये
में १५ पैसा हीं जनता तक पहुंचता है.
तब से आज तक के चार दशकों में प्रजातंत्र की
जड़ें कुछ पुख्ता हुई. साक्षरता दर बढ़ी, प्रतिव्यक्ति आय खरामा –खरामा ऊपर हुई, समाज की तर्क शक्ति बेहतर
हुई और मीडिया सशक्त हुई. नतीजतन राज्य अभिकरणों से अपेक्षा बढ़ी. यह अलग बात है कि
इसी बीच १९८४ से फिर से देश को संकीर्ण व् अतार्किक पहचान समूहों में बांटने का एक
जबरदस्त और सफल प्रयास हुआ. इस वर्ष जहाँ एक ओर हिंदूवादी ताकतों और उसके राजनीतिक
प्रगटीकरण –भारतीय जनता पार्टी – ने राम मंदिर का मुद्दा परवान चढ़ाया वहीं कांशी
राम ने दलितों की पार्टी --बहुजन समाज पार्टी—को जन्म दिया. चूंकि हर संकीर्ण
अवधारणा का एक विपरीत न्याय (पोएटिक जस्टिस) होता है, मंडल कमीशन की रिपोर्ट के
रूप में बहुसंख्यक हिन्दू समाज को एक बार फिर टूटना पड़ा जातिवादी समूहों में. और
तब पैदा हुआ तथाकथित “सामाजिक न्याय शक्ति” (सोशल जस्टिस फ़ोर्स). उसमे से निकले
मुलायम और लालू सरीखे नेता. जातिवादी
राजनीति फिर पुख्ता हुई. जो कि आज तक कमर पर हाथ रखे प्रजातंत्र को मुंह चिढा रही
है.
लेकिन सामाजिक पहचान समूह (सोशल आइडेन्टिटी
ग्रुप्स) के सशक्तिकरण की झूठी चेतना पर राज करने वाले क्षेत्रीय दल भी आज विकास
की भाषा बोलने लगे है. राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच इस बात की होड़ लगी है कि
उन्हें विकास का मुखिया कहा जाये. मैं कुछ साल पहले तक अगर किसी मुख्य मंत्री का
इंटरव्यू करता था तो विकास के मापक शब्दों को वह यह कह कर ताल देता था कि यह
टेक्निकल बात हम अपने अधिकारियों से पूछे तो अच्छा रहेगा. मानव विकास सूचकांक या
बाल मृतु दर (आई एम् आर ) उसके लिए अजूबा होते थे. गरीबी की बात करने पर वह एक बात
कहता था “हम गरीबों के आंसू पोछेंगे और हमारे शासन में गरीबी ख़त्म होगी. लेकिन आज किसी
नरेन्द्र मोदी , किसी रमन सिंह, किसी शिवराज सिंह, किसी नीतीश या किसी अशोक गहलोत
को अगर प्लानिंग कमीशन के अधिकारियों से बात करते देखें तो यह अहसास नहीं होगा कि
विकास कोई टेक्निकल सब्जेक्ट है जिससे राज-नेताओं का कोई सीधा रिश्ता नहीं है.
मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री ने हाल हीं में एक
न्यूज़ चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा “आज जिस नीतीश कुमार अपना माडल बता कर बेंच
रहे हैं वह दरअसल मेरे माडल है मैंने स्कूल जाने वाली लड़कियों के लिए साइकिल योजना
सबसे पहले शुरू की थी”. एक होड़ मची है “वोकास माडल” बताने की.
किसी गरीब मुल्क में विकास का पैमाना राजनीतिक
स्वीकार्यता का पर्याय बने इसका सीधा मतलब होता है कि गरीब अब राजनीतिज्ञों की
मानसिक अय्यासी का शब्द ना हो कर एक चाबुक है. अब चूंकि विकास का भ्रष्टाचार
से गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी
अपनी दस साल की विकास यात्रा से २००२ के गुनाह साफ़ कर रहे हैं और एक हद तक उन्हें
जन-स्वीकार्यता भी हासिल हो रही है. शायद जनता भी यह
समझने लगी है कि अपराध का फैसला न्यायालय करेगी लेकिन कोई राजनेता अगर दस साल से
राज्य के विकास लिए जी तोड़ मेहनात कर रहा है या ऐसा करता दिखाई देता है तो वह उनसे
अच्छा है जो विकास तो दूर भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं. और अगर नहीं डूबे हैं
तो उस ओर से मुंह मोड़ रखे हैं. जनता शायद यह भी मानने लगी है कि “बाँझ ईमानदारी”
का कोई मतलब नहीं होता.
राज्य के मुखिया अपने –अपने मॉडल परोश रहे हैं.
एक मोदी माडल है तो एक नीतीश मॉडल है, अक्सर
गहलोत और शिवराज भी अपने माडलों का ज़िक्र कर रहें है. दरअसल हर माडल में
कुछ खराबी है तो कुछ अच्छाई. मसलन मोदी का कहना है कि उनके माडल में संतुलित विकास
किया गया है और अर्थ=व्यवस्था के तीनों क्षेत्र
(कृषि, उद्योग व् सेवा) का जी एस डी पी (सकल राज्य घरेलू उत्पाद ) की ३३-३३
प्रतिशत की भागीदारी है. शायद कृषि –आधरित अर्थ-व्यवस्था में जहाँ देश का ६२ फी
सदी व्यक्ति रहता हो इससे अच्छी व्यवस्था नहीं हो सकती. लेकिन गहराई से जांच करने
पर पता चलता है कि कृषि विकास दर बढ़ने का कारण कुछ पैसे वाले किसानों का कैश क्रॉप
की तरफ मुद जाना है. कृषि क्षेत्र में रोजगार कम हुए हैं और जमीन की उपलब्धता आम
किसानों से हट कर बड़े किस्सनों के पास चली गयी है. साथ हीं उद्योगिक विकास तो हुआ
है परन्तु श्रमिकों की माली हालत बदतर हुई है और रही अभिकरण उद्योगपतियों के
हित-साधन में लगे हैं. इस आपाधापी में मानव विकास के प्रयास भी कम हो रहे हैं
नतीज़तन राज्य का बाल मृतु दर अपेक्षित रूप से नहीं घटा है. सामजिक क्षेत्र में व्यय
और जी एस डी पी का अनुपात कम हुआ है.
विकास की रह पर चलने की दो अडचनें मुख्य हैं.
पहला : अगर विकास का स्तर पहले से हीं अधिक रहा है तो ऐसे में आंकड़ों में प्रतिशत
के रूप में विकास उतना नहीं दिखाई देता. गुजरात इसका उदाहरण है. गुजरात या
महाराष्ट्र पहले से हीं आर्थिक मामलों में विकसित रहे हैं. गुजरात के समाज में हीं
उद्यमिता है और अमूल जैसा कोआपरेटिव प्रयास कई दशकों से विश्व के लिए उदाहरण है.
उसके विपरीत उन राज्यों में जहाँ विकास बेहद कम रहा है तो उसमे थोड़ा सा भी प्रयास
रंग लाता है और विकास के आंकड़े बेहतर करने में कम वक़्त लगता है और गति तेज होती
है. बिहार इसका उदाहरण है. लालू सरकार की अकर्मण्यता के बाद एक विश्वास का वातावरण
बना. कृषि उद्पादन में आई अचानक ५० प्रतिशत की वृद्धि ने राज्य का जी डी पी बढ़ा
दिया है. बिहार के पास अभी भी करने के लिए काफी गुंजाइस है खासकर जनसँख्या-वृद्धि
दर अभी भी घटने का नाम नहीं ले रही है. राज्य में सडकों के बन जाने से एक माहौल तो
बना है परन्तु समाज में उद्यमिता ना होने के कारण औद्योगिक विकास परवान नहीं चढ़
रहा है.
एक अन्य पहलू पर गौर करें. जहाँ बिहार आबादी
घनत्व ११०२/वर्ग किलोमीटर है वहीं राजस्थान और मध्य प्रदेश का क्रमशः १६५ और २३६.
इसका सीधा मतलब है कि बिहार में जन विकास कार्यक्रमों की डिलीवरी बहुत आसन है इन
दो राज्यों के मुकाबले. यानि जहाँ एक सम्मान को दस हज़ार लोगों में वितरित करने में
बिहार को कुछ गाँवों में हीं घूमने पडेगा वहीं इन दोनों राज्यों के डिलीवरी
अभिकरणों को कई जिले या तहसील जाना पड़ सकता है. बिहार में जन वितरण प्रणाली को और
बेहतर करने की ज़रुरत है.
इन सबमें बेहतर है छत्तीसगढ़ का विकास मॉडल खासकर
खाद्य एवं चिकित्सा को लेकर. रमन सिंह ने राज्य में सभी के लिए चिकित्सा बीमा की
योजना शुरू की और साथ हीं गरीबों के लिए सस्ते और मुफ्त अनाज के कई योजनायें बेहद
सफल ढंग से चल रहीं हैं. लाभार्थी कहीं से भी अपना मोबाइल दिखा कर सस्ता अनाज
हासिल कर सकता है. बिजली के उपलब्धता के कारण कृषि विकास दर बेहतर हुई है और नए
उद्योगों के आने से श्रमिकों का पलायन कम हुआ है.
कुल मिलकर विकास का राजनीतिक डिक्शनरी में आना
भारत जैसे मुल्क के लिए एक शुभ संकेत है.
sahara (hastkshep)
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