विगत सप्ताह एक चैनल द्वारा
आयोजित “मीडिया फेस्ट” में देश के दो जाने-माने फायरब्रांड एंकरों ने, जो अपने
चैनलों के संपादक भी है ---एक अंग्रेजी चैनल का और दूसरा हिंदी चैनल का— युवा
पत्रकारों के सवालों का जवाब दे रहे थे. युवाओं का प्रश्न था इनके मशहूर कार्यक्रमों (स्टूडियो
डिस्कशन्स) में इनके आक्रामक तेवर और
मुद्दों पर अपने बेलाग और “यही अंतिम सत्य है” वाले थोपू विचार को लेकर.
कहना न होगा कि दोनों ने
अपने धंधे के अनुरूप वाक्-कुशलता के जरिये पूरी शिद्दत से अपने को सही ठहराया.
उनके तीन तर्क थे. पहला यह कि वास्तविक पत्रकारिता और गजट-वाचन में अंतर होता है
याने पत्रकारिता उस दिन शून्य-उपादेय हो जाएगी जिस दिन महज तथ्य (एक –मरे-दो-घायल
टाइप) परोसने का काम करने लगेगी, सरकारी प्रेस-नोट या डी-डी न्यूज़ की मानिंद.
दूसरा तर्क था एक सम्पादक-एंकर को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता उतनी हीं है जितनी
किसी अन्य को. तीसरा तर्क था एक पत्रकार को मुद्दों के तह में जाने के बाद उसको
लेकर एक पैशन (आसक्ति) होना चाहिए क्योंकि पत्रकार मशीन नहीं संवेदनशील आदमी है.
इन दोनों संपादक-एंकरों ने
चश्में पहन रखे थे. अगर वे चश्में उतार देते तो उस हॉल का,जिसमें यह संवाद हो रहा
था, स्वरुप उनके लिए बदल चुका होता. लोगों ने कैसे कपडे पहने हैं, दूर तक भीड़ कितनी
है, लड़के-लड़कियों का अनुपात क्या है यह सब कुछ वही ना होता जो चश्मे से देखने पर
था. यानि महज एक सेकंड के दशांश में हीं तथ्य (जिसे इन्होने सत्य मान लिया था) बदल
गए होते. चश्मा लगाने के पहले का सत्य और चश्मा उतारने के बाद का सत्य अलग –अलग
होते. अब मान लीजिये रोशनी कम हो जाये तो संपादकों का सत्य एक बार फिर बदल जाएगा
और अगर दूर कहीं एक झालर गिर कर हवा में लटक रहा हो और कुछ हीं देर पहले इनको
आयोजकों से यह भी पता चला हो कि दो दिन पहले यहाँ एक बड़ा सांप देखा गया था, दो
क्या संपादकों का सत्य “झालर नहीं सांप” के रूप में बदल नहीं जाएगा? अद्वैत –वेदान्त
का सिद्धांत ब्रह्म सत्यम , जगत मिथ्या और खासकर शंकर के मायावाद का “सर्प-रज्जू
भ्रम” इसी को उजागर करता है.
ज्ञान-मीमांसा
(एपिस्टेमोलोजी) के सिद्धांतों के तहत मानव जिसे सत्य समझता है वह दरअसल उसके पिछले
ज्ञान और ज्ञानेन्द्रियों द्वारा हासिल ताज़ा तथ्य का दिमाग में संश्लेषण होता है. एक
बच्चे को सांप से डर नहीं लगता लेकिन बड़े को लगता है. चूँकि ज्ञानेन्द्रियों के
सीमा है इसलिए कोई भी सत्य अंतिम नहीं होता.
इन दोनो संपादक-एंकरों की
बातों में गंभीर तर्क-शास्त्रीय दोष है. पहला पत्रकारिता और एक्टिविज्म में अंतर
है. पत्रकार किसी मुद्दे पर प्रतिस्पर्धी तथ्यों व विचारों का बाज़ार
(मार्किट-प्लेस) तैयार करता है और फैसला जनता पर छोड़ देता है. यही वज़ह है कि
सामना, पीपुल्स डेली या पांचजन्य के संपादकों के तर्क-वाक्यों की विश्वसनीयता उतनी
नहीं होती जितनी किसी स्वतंत्र (या ऐसा माने जाने वाले) चैनल या अखबार के सम्पादक
की. दोनों को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है पर उनकी विश्वसनीयता जन-धरातल में
लोगों द्वारा तय की जाती है. लिहाज़ा सम्पादक विचार तो रख सकता है पर एंकर के रूप में
वह उन विचारों की लाइन में अगर संवाद को धकेलना चाहता है तो ना केवल उसकी और
संपादक के संस्था की बल्कि उसके चैनल की
विश्वसनीयता भी संदिग्ध हो सकती है. क्योंकि चैनल के प्रतिनिधि के रूप में वह
संपादक सामान्य नागरिक से कुछ ज्यादा होता है.
एक उदाहरण लें. भारत –पाकिस्तान
बॉर्डर पर दो भारतीय सैनिकों की सर कटी लाश बरामद होती है. कुछ हीं घंटों में एक
एडिटर-एंकर जो पूरे तथ्य एकत्रित करने का याने तथ्य तक पहुँचाने का दावा करता है
अपने स्टूडियो प्रोग्राम में पाकिस्तान सेना को दोषी ठहराते हुए इतनी उर्जा पैदा
करता है कि पूरे देश में ड्राइंग-रूम आउटरेज (कमरे में बैठे गुस्सा ) का भूचाल आ जाता
है. सरकार से अपेक्षा होने लगाती है कि “हमेशा-हमेशा के लिए ये समस्या ख़त्म करो”
या “अबकी पाकिस्तान को एक ऐसा सबक सिखाओ कि दोबारा हिम्मत ना करे”. उस दर्शक को यह
नहीं बताया जाता कि वैश्विक राजनीतिक, सामाजिक व सामरिक स्थितियां कैसी हैं. क्या
दो देशों के संबंधों को वर्तमान विश्वजनीन परिप्रेक्ष्य को देखते हुए एक भावनात्मक
आक्रोश के तहत सामरिक आग में झोंका जा सकता है? क्या देश को इस चैनल ने यह बताया
कि पाकिस्तान एक ऐसा देश है जहाँ आतंकवादी, आई एस आई , सेना और राजनीतिक शासक अलग –अलग
बगैर एक दूसरे की परवाह किये काम करते हैं और ऐसे में पाकिस्तान को सबक सिखाने का
मतलब सीधे युद्ध में जाना हीं हो सकता है वह भी एक ऐसे देश के साथ जिसके पास भारत
से ज्यादा परमाणु हथियार है और जिसका ना तो स्वरुप तय है ना हीं गंतव्य? क्या आज
भारत विकास छोड़ कर अपने को परमाणु युद्ध में एक ऐसे देश के साथ भीड़ सकता है जो
असफल राष्ट्र है. क्या ऐसे असफल पडोसी को, जो स्वयं हीं ख़त्म हो रहा है, कमजोर
करने के और उपादान नहीं है?
एक और खतरा देखें. मान
लीजिये एक महीने बाद पता चलता है कि दरअसल भारतीय सैनिकों के सर पाक सैनिकों ने
नहीं बल्कि कश्मीरी आतंकवादियों ने या अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले तस्करों ने काटे थे
तब उस संपादक की विश्वसनीयता की क्या हश्र होगा?
एक और उदहारण लें. डी एस पी
की हत्या में राजा भैया पर आरोप है और एडिटर-एंकर उसी दिन शाम को अपने प्रोग्राम में सरकार से पुरज़ोर मांग
करता है कि आरोपी को गिरफ्तार किया जाये. अब मान लीजिये कि सी बी आई की जाँच के
बाद पता चलता है कि राजा भैय्या नहीं बल्कि कोई और गुंडा इस कांड के पीछे है, क्या
उसके बाद सम्पादक की सस्था पर आने वाले आक्षेप से बचा जा सकता है?
क्या यह आरोप संपादक पर
नहीं लगेगा कि उसने “सभी तथ्यों” के बजाय “कुछ चुनिन्दा तथ्यों के आधार पर अपना
“तोड़ दो, फोड़ दो, हमेशा के लिए ख़त्म कर दो” का भाव अपनाया है. जब सी बी आई को
महीनों पापड़ बेलने की बाद पूर्ण तथ्यों का टोटा रहता है तो सम्पादक महोदय को कुछ
हीं घंटों में किस अलादीन का चिराग से “सभी तथ्य” मालूम हो जाते है?
एक और गलती. तर्क शास्त्र
में माना जाता है कि जब तर्क कमजोर होते हैं तो आप्त-वचन का सहारा लिया जाता है
यानि यह कहा जाता है कि अमुक बात मैं हीं नहीं गाँधी ने या गीता ने या भारत के सी
ए जी द्वारा भी कही गयी है. इसी क्रम में “नेशन वांट्स तो नो टु नाइट” (देश आज इसी
वक्त जानना चाहता है) कहा जाता है. क्या कोई राय -शुमारी संपादक-एंकर ने की है? और
अगर मान लीजिये देश की भावना है भी तो क्या पाकिस्तान से युद्ध शुरू किया जा सकता
है? इस तरह तो विवादास्पद भूमि पर कब का मंदिर बन जाना चाहिए क्योंकि प्रजातंत्र
में राय-शुमारी के तहत बहुसंख्यक मत हीं देश का मत होगा?
संपादक-एंकर का उग्र
विचार दो खतरे पैदा कर सकता है. एक उसकी, संपादक के संस्था की और उसके चैनल की
विश्वसनीयता ख़त्म हो सकती है और दो, दर्शकों को सुविचारित एवं सम्यक विचार (अन्य
एक्सपर्ट्स के) से वंचित होना पड़ सकता है और वह अपना स्वतंत्र मत नहीं बना सकता ,
जो कि पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है.bhaskar 13-3-13
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