तथ्य देने व् तर्क शक्ति बढाने में टी वी
स्टूडियो की बड़ी भूमिका
हैबर मास के जन धरातल (पब्लिक स्फीयर) के
सिद्धांत और मीडिया की भूमिका की इस अवधारणा को, कि प्रजातंत्र में मास मीडिया का
मूल कार्य मुद्दों पर परस्पर-विरोधी विचारों को सामने ला कर एक बाज़ार खड़ा करना
होता है, अगर मिला कर देखा जाये तो आज भारत के न्यूज़ चैनलों में होने वाले डिस्कशन
एक बड़ा कार्य कर रहे हैं. शायद यही वज़ह है कि इंडिया गेट पर अब भावनात्मक मुद्दे
“मंदिर-मस्जिद” की जगह गैर-राजनीतिक लेकिन जन-हित के मुद्दों मसलन भ्रष्टाचार और
बलात्कार ने ले ली है.
राजनीति-शास्त्र का एक सिद्धांत है कि
अर्ध-शिक्षित अथवा अशिक्षित समाज में भावनात्मक मुद्दे पर आया जन-उबाल कई बार
संवैधानिक व्यवस्था पर भारी पड़ जाता है और शासन के पूरी प्रजातान्त्रिक स्वरुप को
हाइजैक कर लेता है. सन १९९२ में ढांचा का गिरना उसी का नतीजा रहा है. लेकिन पिछले
२० सालों में शिक्षा के विस्तार, प्रति-व्यक्ति आय में बढोत्तरी और परिणाम –स्वरुप
उपजी बेहतर समझ ने स्थिति बदल दी है.
जन-अभिरूचि में इस परिवर्तन को एक शुभ संकेत
मानते हुए आज चैनलों में प्राइम टाइम में
ना तो बाबा रहते हैं ना हीं भूत. तात्कालिक जन मुद्दे पर घंटों बहस की जाती है
जिसमे ना केवल विषय के जानकार अपनी राय
देते है बल्कि राजनीतिक पार्टियों के लोग अपनी स्थिति स्पष्ट करते हैं. चूंकि भारत
में प्रजातंत्र द्वंदात्मक या यूँ कहें कि प्रतिस्पर्धी अवधारना पर आधारित है
लिहाज़ा कई बार दो पार्टियों के प्रतिनिधि एक –दूसरे से झगड़ते दिखाई देते है और कई
बार उनकी कोशिश एक-दूसरे को नीचा दिखने की होती है लिहाज़ा डिस्कशन की सार्थकता
बेमानी सी दिखने लगाती है. कई बार यह भी प्रयास होता है कि टी वी चैनलों के एंकर या विशेषज्ञों पर
आक्षेप कर के उनकी निष्पक्षता को कटघरे में लाया जाये.
ऐसी स्थिति खासकर तब आती है जब किसी मुद्दे पर
किसी राजनीतिक दल की कथनी और करनी में अंतर को ले कर कोई एंकर सवाल करता है या कोई
विशेषज्ञ कोई तथ्य प्रस्तुत करता है. उदाहरण के तौर पर अगर समाजवादी पार्टी के इस
वक्तव्य को कि वह खुदरा व्यापार में ऍफ़ डी आई नहीं लाने देगी और संसद में मतदान के
दौरान उसके बहिष्कार को लेकर सवाल हो तो हमले प्रश्न करने वाले पर हो जाता है. उसी
तरह अगर भारतीय जनता पार्टी को यह
हकीकत बताई जाती है कि पिछले २३ सालों में हुए सात आम चुनावों
में पार्टी को मिले मत-प्रतिशत से साफ़ हो जाता है कि वह हिन्दू समाज (अगर ऐसा कोई
समाज गलती से है भी तो) का रहनुमा नहीं है और हिन्दुओं के लिए मंदिर कोई मुद्दा
नहीं है तो लाज़मी है कि जवाब के रूप में एंकर या विशेषज्ञ पर हमला हीं हो सकता है.
यह सही है कि टी वी चैनलों पर संवाद की प्रक्रिया
अभी अपेक्षाकृत नयी विधा है और अभी डिस्कशन के पैरामीटर्स और बेहतर करना जरूरी है. लेकिन
इससे बड़ी जरूरत है प्रतिभागियों में उस भाव की जिसमे परस्पर विरोधी तर्क-वाक्यों
को सहजतापूर्वक और बेबाकी से आत्मसात की जाए. ब्रिटेन की संसद में ऐसी परंपरा रही है कि जब कोई बड़े से
बड़ा नेता बोल रहा हो और कोई संसद सदस्य अचानक खड़ा हो कर कुछ कहना चाहे तो पहला
वक्ता बाद वाले वक्ता के सम्मान में बैठ जाता है. लेकिन ऐसा दूसरे वक्ता तभी करता
है जब कोई बहुत हीं अपरिहार्य स्थिति हो. कहने का मतलब यह कि संवाद में एक-दूसरे
के तर्क वाक्यों का सम्मान करने की भावना होनी चाहिए ना कि “बोलती बंद कर दी” का
विजयी भाव. ना हीं प्रतिभागी की दिलचस्पी
अपनी बात तार्किक रूप से रखने में कम और अपने दूर बैठे नेता को खुश करने में
ज्यादा होनी चाहिए. ऐसा करने वाले पार्टियों के प्रतिभागी शायद यह भूल जाते हैं कि
वह जाने-अनजाने अपनी हीं पार्टी और नेता का नुक्सान कर देते हैं.
कई बार विशेषज्ञ भी अपने तर्क-वाक्य तथ्यों पर
आधारित कम करते है और अपने विचार ज्यादा. यही वह क्षण होता है जब उसके और राजनीतिक
प्रतिभागी के बीच अंतर ख़त्म हो जाता है . अगर कोई विशेषज्ञ यह कह रहा हो कि मंदिर
आम भारतीयों का या खासकर हिन्दुओं का मुद्दा नहीं रहा या अगर रहा भी तो उसका
राजनीतिक लाभ नहीं लिया जा सकता लिहाज़ा तो उसे पिछले सात आम चुनावों के आंकड़ों से
सिद्ध करना होगा. भारत में विशेषज्ञों का एक बड़ा वर्ग है जो राजनीतिक संवादों में
तथ्य-आधारित निष्कर्ष से ज्यादह अपने विचार परोसता है.
चूँकि अचानक जन-अभिरूचि देश में गंभीर व
वास्तविक मुद्दों पर ज्यादा बढ़ गयी है जिसकी वज़ह से सभी बड़े चैनल स्टूडियो डिस्कशन
करने लगे हैं इसलिए राजनीतिक पार्टियों के लिए भी अपेक्षित है कि वह अपने उन्हीं
प्रतिनिधि को भेजें जिनमे विषय को लेकर समझ हो या जो केवल नेता-वंदना या गले की
ताक़त का सहारा ना लेकर अपनी बात को प्रभावी ढंग से रखें.
बहरहाल एक बात साफ़ है इस तरह के संवाद के लिए
मंच उपलब्ध करा कर भारतीय खबरिया चैनलों ने प्रजातंत्र को मजबूती देने की दिशा में
एक बड़ा कदम उठाया है और इसीका नतीजा है कि अब औसत शिक्षित व्यक्ति को भी मालूम हो
गया है कि देश में भ्रष्टाचार उसको तबाह कर रहा है कि मंदिर का ना बनाना. यही वजह
है कि देश के अधिकांश मुसलमानों ने स्पष्ट रूप से कहा “विश्वरूपं फिल्म में क्या
है , क्या नहीं हम बगैर देखे कैसे कह सकते है” या “इस्लाम इतना कमज़ोर नहीं है कि
किसी फिल्म के कुछ अंशों से असर पड़े” या “अगर आतंकवादी धर्म का सहर लेता है और इसे
फिल्म में दिखाया गया है तो गलत क्या है”. ध्यान रहे कि यह कहने वाले ज्यादातर
युवा मुसलमान थे.
देश में सन २००९ के चुनाव से अगले चुनाव की बीच
कोई दस करोड़ नए लोग मतदाता –सूची में शामिल हो रहे हैं. यह सब युवा हैं और इन्हें
रोजगार चाहिए न कि मंदिर-मस्जिद. लिहाज़ा चैनलों पर आज मुख्य बहस सार्थक और
वास्तविक जन सरोकार के मुद्दें है. इसका लाभ यह रहा है कि
सरकारें अब “कुछ भी करके निकलने “ की स्थिति में नहीं रहीं और उन्हें संसद में
नहीं तो चैनलों पर जवाब देना हीं होगा.
lokmat
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