Monday, 21 January 2013

राहुल की वेदना : राजनीति में साधारण लोगों ने प्रतिभा को ब्लाक किया


     कैडर के लिए राहुल का स्पष्ट सन्देश: तुम काम करो कुर्सियां खाली होंगी

जब किसी १२७ साल पुरानी और देश का आज भी सबसे बड़ी पार्टी जो लगभग ६३ साल पुरानी गणतांत्रिक व्यवस्था में पांच दशक से ज्यादा शासन में रही हो, का नवनियुक्त युवा नेता ने सिस्टम के दोष गिनाये और यह बताये  कि इस सिस्टम में बुद्धिमत्ता की जगह  सामान्यतावाद (मीडियोक्रिटी) हावी हो गयी है जिसके तहत मुट्ठी भर लोग सत्ता पर कब्ज़ा जमा कर करोड़ों लोगों की आवाज़ पर भारी पड़ रहे हैं, तो इसे समान्य भाषण की श्रेणी में रख कर विश्लेषण नहीं किया जा सकता. कांग्रेस पार्टी के नवनियुक्त उपाध्यक्ष और सेकंड-इन-कमांड राहुल गाँधी ने आगे कहा  “दिल्ली में बैठे मंत्री पंचायत द्वारा किया जाने वाला काम कर रहे है और मुख्य-मंत्री अध्यापक की नियुक्ति कर रहे हैं. पार्टी कोई भी हो क्यों मुट्ठी भर लोग समूची राजनीतिक धरातल घेरे हुए हैं”.
नेहरु-गाँधी परिवार के इस उत्तराधिकारी की बेबाकी, जिसमें पीड़ा ज्यादा थी, पारंपरिक उपदेश नादातर, जिसमे आत्म-मंथन से निकले स्व-शुद्धिकरण के उन्माद का भाव ज्यादा था और “हमारे-बनाम उनके” का छदम आरोप कम, ने कम से कम गिरते हुए राजनीतिक संवाद का स्तर एक बार फिर उठाने की कोशिश की. उनका दर्द कोई उलाहना नहीं था बल्कि यथार्थ पर आधारित तार्किक सोच का नतीजा था. लोग राहुल के भाषण में भावनात्मक विवरण को भले हीं नकारात्मक भाव से देखें लेकिन यह उस यथार्थ को बताता है जो सत्ता में मोह के साथ जुडी है. यही कारण था कि इस युवा नेता ने निर्लिप्त-भाव से सत्ता को जन सेवा का माध्यम बनाने की बात कही.
विचारधारा-विहीन राजनीतिक पार्टी की यह मूल-समस्या है. कैडर प्रतिबद्ध नहीं होता बल्कि सत्ता के मोह में आता है. उसमें प्रतिबद्धता का भाव लाने के लिए नेता को उन्हें कैडर संरचना को भविष्य में क्या-क्या मिल सकता है, का प्रलोभन देना होता है. याने कैडर को “इंसेंटिवाइज़” करना होता है. “हमें ४०  से ५० ऐसे लोग  तैयार करने है जो इस देश को चलाएंगे. ऐसे हीं हर राज्य में पांच से दस लोक ऐसे चाहिए जो मुख्य-मंत्री बनाने की काबिलियत रखते हों. सत्ता का विकेंद्रीकरण करना ज़रूरी है. आज यह बात महत्व नहीं रखती कि आप कितने योग्य है, महत्व इस बात का है कि आप सत्ता में कहाँ बैठे हैं.” सपष्टरूप से राहुल गाँधी ने कैडर को उसका भविष्य बताया और उन्हें भी जो मंच पर जुगाड़ कर के बैठे हैं या बैठे रहे हैं.
राहुल का दर्द अकारण नहीं था. हाल की कुछ बड़ी एवं ऐतिहासिक घटनाओं पर जिस तरह सरकार का रख रहा या जिस तरह औसत दर्जे की प्रतिक्रिया से ऊपर सरकारी अमला नहीं बढ़ पाया उस पर गौर करने की ज़रुरत है.
इसी मंच से देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का कहना कि भारतीय जनता पार्टी और आर एस एस के आतंकवादियों को ट्रेनिंग देने के कैंप हैं उसी मीडियोक्रिटी (सामान्यतावाद) की ओर चिल्ला –चिल्ला कर इंगित कर रहा है. एक भ्यारत ऐसे देश के गृहमंत्री को अगर भाषाई शालीनता ना मालूम हो, द्वंदात्मक प्रजातंत्र में संवैधानिक स्थितियों का ज्ञान ना हो और जो कानूनी तथ्य और मीडिया रिपोर्ट में अंतर ना जनता हो उसे मीडियाकर से नीचे का हीं मना जा सकता है. एक ऐसे मंच से जिसका उद्देश्य चिंतन हो , पोलिटिकल बकवास किया जाना वह भी सड़क छाप, अपने आप में किसी भी भावी नेता की वेदना का कारण हो सकता है.       
राहुल ने जो कुछ कहा वह आध्यात्म का मनीषी श्री औरोबिन्दो घोष ने काफी पहले कहा था और जिसे भाषांतर से ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ग्लेडस्टोन ने भी संसद में व्यक्त किया था. दोनों का मानना था कि व्यस्क मताधिकार पर आधारित प्रतिनिधि प्रजातंत्र में ऐसे मीडियाकर लोगों  का वर्चस्व हो जाता है जो औसत चालाकी, स्वार्थ-सिद्धि , आत्मा-छलावा और अहंकार के प्रतिमूर्ति होते हैं और जिनमे मानसिक अयोग्यता, नैतिक –शून्यता , भीरुता और दिखावा कूट-कूट कर भरी होती है. बारे से बारे मुद्दे इनके पास आते हैं पर ये उन्हें अपेक्षित गरिमा से नहीं बल्कि अपने छोटेपन से हीं निपटाते है.
कांग्रेस-नेत्रित्व वाली यू पी ए -२ ने कुछ बहुत हीं अच्छे जन-कल्याण के कार्यक्रम शुरू किये लेकिनचूँकि उनका क्रियान्वयन राज्य अभिकरणों के हाथ में था इसलिए वे सारे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए. इनमें मंरेगा, सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और आने वाला खाद्य सुरक्षा कानून है. शायद विश्व के किसी अन्य विकसित या विकासशील देश में (ब्राज़ील, मैक्सिको सरीखे कुछ को छोड़ कर) इनते अच्छे कार्यक्रम नहीं हैं पर ना तो कांग्रेस का कैडर संरचना ऐसी थी कि वह राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार से इसे ख़त्म ना होने दे ना हीं सरकार जनता के बीच अपेक्षित सामूहिक चेतना विकसित कर पाई.
भरष्टाचार के खिलाफ जन चेतना को यू पी ए सरकार ने “जो भ्रष्टाचार विरोधी खेमे में वह सरकार विरोधी” का भाव ले लिया लिहाज़ा सन्देश यह गया कि सरकार भ्रष्टाचार की पोषक है. उसी तरह बलात्कार कांड में भी पुलिस ऐसी लीपा-पोती करना चाहती थी जिससे यह लगा कि सरकार महिलाओं के बारे में संजीदा नहीं है.
राहुल के आने का अगर यह मतलब है कि अतार्किक रूप से भारतीय जनता पार्टी या संघ को आतंकवादी बताने वाले गुट जिसका नेतृत्व राहुल के चहेते दिग्विजय सिंह करते है हावी रहा तो कांग्रेस को हराने के लिए दिग्विजय-मणिशंकर-शिंदे की तिकड़ी काफी होगी. कांग्रेस को किसी भी दुश्मन की ज़रुरत नहीं होगी. ऐसा माना जा रहा है कि सोनिया के करीब लोगों का वर्चस्व घटेगा , अहमद पटेल कमज़ोर होंगे और अल्प-संख्यकों को लुभाने वाले या यूं कहें कि बहुसंख्यको को अनायास हीं एकत्रित करने वाले बयान और ज्यादा प्रमुखता से आयेंगे.
कम से कम राहुल के भाषण का एक सबसे बड़ा असर कैडर पर यह पड़ा है कि उसे अपना भविष्य काम करने में ना की चाटुकारिता करने में नज़र आ रहा है. लेकिन देखना होगा कि राहुल ने यह भाषण दिल से पढ़ा है या दिग्विजय-मणि-पित्रोदा टाइप जन-धरातल से दूर रहे नेताओं का तोता-रटंत भर है.
बहरहाल भाषण पर अगर अमल हो तो कांग्रेस भ्रष्टाचार से गिरी प्रतिष्ठा को एक बार फिर हासिल कर सकता है अपने जन कल्याणकारी कार्यक्रमों के ज़रिये खासकर प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून किससेदेश के ६७ फ़ीसदी लोगों को पांच किलो अनाज (तीन रु किलो चावल और दो रु गेहूं) मिलेगा.   
 ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार देश का २२ मिलियन टन गेहूं गोदाम के आभाव (और ४० प्रतिशत फल व सब्जी रखाव, शीत-यातायात के ना होने से)  में बर्बाद हो जाता है जबकि इस स्कीम के लिए मात्र ६० मिलियन टन अनाज की ज़रुरत है. क्या अब भी समझाने की ज़रुरत है कि सत्ता में बैठे लोग मीडियाकर हैं. शायद राहुल गाँधी की यही चिंता भाषण में झलक रही थी.

bhaskar 

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