“अगर कोई सैनिक अपने देश के लिए जान देता है तो उसे शहीद कहते हैं लेकिन अगर कोई धर्म के लिए कुर्बान होता हो तो उसे आतंकवादी कहते हैं ? मान लीजिये, कोई भारत के सरकार के खिलाफ हो जाता है तो सरकार उसे दण्डित करती है , कि नहीं?”. ये सवाल केरल के इस्लाम कबूल करने वाले याहिया ( जो पहले ईसाई था) का है जो अपने २१ साथियों के साथ देश छोड़ कर आई एस आई एस के अफगानिस्तान में सक्रिय संगठन से जुड़ गया. अपने तमाम पत्रों को एक एनक्रिप्टेड वेवसाइट “टेलीग्राम” के जरिये पिछले काफी समय से एक अंग्रेज़ी अखबार को भेजता रहा है. हाल हीं में उसके एक साथी ने खबर दी कि याहिया एक अमरीका सैनिकों के ऑपरेशन में मारा गया.
तर्क याहिया का हो या आई एस आई एस का, यह प्रदर्शित करता है किस तरह विश्व के इस्लामिक आतंकी संगठन अपने कुतर्कों से आज पूरी दुनिया के लिए ख़तरा बन गये हैं, किस तरह ये संगठन ग़रीब , अशिक्षित या नीम शिक्षित मुसलमान युवाओं को कुतर्क के सहारे गुमराह कर रहे है और उनमें एक उन्माद पैदा कर रहे हैं. आज ज़रुरत है कि या तो इस्लाम के वास्तविक अलमबरदार इस धर्म के उन्माद से दुनिया को बचाने के लिए आगे आये और इसे पुनर्परिभाषित करें या दुनिया संगठित हो कर इसका प्रतिकार करे. याहिया को यह नहीं बताया गया कि “धर्म के लिए मरना और धर्म के लिए मारना” में कितना अंतर है ना हीं यह कि दुनिया में ख़ून बहा कर खलीफा का शासन स्थापित करना अगर धर्म है तो वह पूरी मानवता, समाज की स्थापना के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है. जो सैनिक देश के लिए जान देता है वह अपने वतन की सुरक्षा के लिए ऐसा करता है ताकि पूरा समाज (जिसमें याहिया ऐसे लोग भी होते हैं) महफूज रहे. उसे यह भी नहीं बताया गया कि दुनिया में खलीफा का शासन (एक अवधारणा जिसे स्वयं दर्ज़नों इस्लामिक देश नकार चुके है) लाने के लिये बेगुनाह लोगों को मारना धर्म नहीं हो सकता। उसे यह भी नहीं बताया गया कि खून बहा कर धर्म का प्रसार एक बर्बरतापूर्ण आदिम सभ्यता का द्योतक है और इसे विश्व समाज काफ़ी अर्से पहले ख़ारिज कर चुका है. देश की सुरक्षा में करने वाले सैनिक या हमला करने वाले सैनिक भी मानवता के दुश्मन माने जाते है जब वे निहत्थे और निर्दोष पर हमला करते है। जब एक आतंकी धर्म के नाम पर यह सब कुछ करता है तो वह उस देश के हीं नहीं पूरे विश्व समाज के और मानवता के लिए ख़तरा माना जाता है.
याहिया ने आगे लिखा है “जेहाद बाज़ार का एक सौदा है अल्लाह के साथ. एक ऐसा सौदा जिसमें हम अपना जीवन और पूँजी अल्लाह को देकर बदले में जन्नत हासिल करते हैं. कितना फायदे का सौदा है! " . याहिया कुरआन के उस आयत (अल तौबा सूरा ९ आयत १११) को उधृत कर रहा था जिसमें कहा गया है “ अल्लाह ने इस्लाम में विश्वास करने वालों से उनका जीवन और उनकी संपत्ति खरीद ली है और बदले में उन्हें जन्नत देने का वादा किया है.........ये अनुयायी अल्लाह के मार्ग में लड़ते हैं और या तो मारते हैं या मर जाते हैं”.
पाकिस्तान जाने-माने पत्रकार अारिफ जमाल ने अपनी किताब “द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ़ जेहाद इन कश्मीर” में करीब ६०० जेहादियों के अंतिम पत्र (मरने के पहले के) का अध्ययन करके लिखा कि “शायद हीं कोई पत्र हो जिसमें जिहाद में मरने के बाद इनाम –स्वरुप जन्नत में मिलने वाली ७२ हूरों का जिक्र न हो. मरते वक्त इसका उल्लेख यह बताता है कि जन्नत की हूरें उनका मुख्य आकर्षण होती हैं.” हालांकि कुरआन की कई आयातों में (अल तुर ५२-२६) और (अल वकियाह ५६-२२, ३५, ३६) हूरों (पुरुष और स्त्री) का जिक्र तो है, उनकी खूबसूरती और उनके शरीर सौष्ठव की चर्चा भी लेकिन ७२ की संख्या हदीस सुनन अत-तिरमिदिह वॉल्यूम ४, अध्याय २१ हदीस २६८७ में मिलता है. दुनिया के जाने-माने इस्लाम के स्कॉलर शेख जब्रिल हद्दाद ने जिन्हें परंपरागत इस्लाम का सबसे बड़ा जानकार माना जाता है , सन २००५ में एक फतवा जारी करके के अल्लाह के नाम पर शहीद हुए लोगों के लिए जन्नत में मिलने वाली छः नियामतों का जिक्र किया है उनमें से पांचवां ७२ हूरों के उपलब्ध होने की तस्दीक करता है.
अफगानिस्तान में यू एन मिशन की आधिकारिक रिसर्चर क्रिस्टिनी जेहादी मानव बमों का अध्ययन करने पर पाया कि लगभग सभी आत्मघाती जेहादी इस विश्वास से प्रेरित होते हैं कि “काफ़िर (जो इस्लाम की जगह किसी और धर्म को मानता है) को मारना हमारा धार्मिक कर्तव्य है”.
जम्मू क्षेत्र के नगरोटा आर्मी कैंप पिछले २९ नवम्बर को हुए आतंकी हमले में मरे फिदाइन के पास से मिले सामान में एक असाल्ट राइफल और कुछ कारतूस के अलावा जो चीज़ मिली वह थी सस्ते इत्र की एक बोतल. तमाम पिछले सबूतों के आधार पर पाया गया कि फिदायीन जान देने के पहले नहाता है फिर दूल्हे की तरह श्रृंगार करता है, आँखों में काजल लगता है और शरीर पर इत्र. इसका आशय यह निकला गया कि ऐसे फिदायीन की यह मान्यता होती है कि जब वह मरने के बाद जन्नत के दरवाजे पर पहुंचे तो वहां हूरों को उसके शरीर से खुशबू आये और वह खूबसूरत दिखे.
९/११ के हमले (वर्ल्ड ट्रेड टावर) के मास्टरमाईंड मुहम्मद अट्टा ने भी अपने अंतिम पत्र में धर्म के नाम पर कुर्बान होने का हवाला दिया था. १९९५ में ओसामा बिन लादेन ने सऊदी शाह फहद को गुस्से में लिखे गए पत्र में बताया था कि सारा झगडा कुरआन के मुताबिक चलने और न चलने वालों के बीच है. उसने उस लम्बे पत्र में २० बार कुरआन की आयातों को उधृत करते हुए कहा कि हम अल्लाह के मजहब पर विश्वास न करने वालों से बदला लेंगे”.
शायद इस्लाम का एक कट्टर वर्ग है जो सही परिभाषा और उदार व्याख्या की जगह अपनी दूकाने चलने के लिए पूरी दुनिया में आतंक फैलाना चाह रहा है और उधर इसका और विद्रूप चेहरा आई एस आई एस के रूप में उभरा है. दुनिया में अमन के लिए दो हीं रास्ते हैं या तो इस्लाम स्वयं इन तत्वों को ख़त्म करे या पूरी दुनिया एकजुट हो कर इस खतरे से लड़े.
दरअसल इस्लाम के प्रसार के लिए और काफिरों (जो इस्लाम में विश्वास न कर किसी और धर्म में करते हैं) से लड़ने के लिए
आत्मघाती दस्ते तैयार करने का इतिहास ११वीं सदी के उत्तरार्ध से शुरू होता है और इसका जनक हसन इब्न अत-सब्बह को माना जाता है. ये फिदायीन सेल्जुक तुर्की साम्राज्य से लड़ने के लिए तैयार किये गए थे. आज भी फिदायीन को (जिसमें कम उम्र के बच्चों को शुरू से हीं मानसिक रूप से तैयार किया जाता है) यही बताया जाता है कि उसका जन्म हीं अल्लाह के काम के लिए हुआ है और फिदायीन का उद्देश्य अल्लाह के लिए अपनी कुर्बानी (इस दुनिया में ) देते हुए जन्नत में वह सब कुछ हासिल करना होता है जो यहाँ उसे नहीं मिलता. इसे उन्माद की हद तक ले जाने में धर्म की खाल ओढ़े आतंकवादी संगठन इतने सफल हो जाते हैं कि आतंकी इमरान माजिद भट्ट के जम्मू में सन २०१३ में आत्मघाती हमले के बाद उसकी माँ के एक कविता लिखी जिसमें उसने कहा “ऐ अल्लाह , तू कब ये आवाज़ देगा कि इस खून में लतपथ पड़े गुलाब की माँ कहाँ है”. पेशवर में २०१४ के सैनिक स्कूल में आत्मघाती हमले मैं तहरीक-ए-तालिबान ने विदेशी आत्मघाती दस्तों जिनमें अफ़ग़ान, अरब और चेचन्या के आतंकी थे, बच्चों के मारे जाने को भी “अल्लाह का काम” बता कर अपने को न्यायोचित ठहराया. यह अलग बात है कि पूरे पीकिस्तान के धार्मिक स्चोलारों ने इसकी आलोचना की और इस संगठन के कृत्य को गैर-इस्लामिक करार दिया.
ऐसा नहीं है कि इस्लाम में एक बड़ा वर्ग कठमुल्लाओं के इस गैर मानवीय प्रयास के खिलाफ आवाज नहीं उठता परन्तु
इस्लाम के इस कठमुल्ले वर्ग के रहनुमाओं की परिभाषा का नतीजा यह रहा कि एबीसी न्यूज़ के पत्रकार बिल रेडेकर जब पेशावर के एक मदरसे में दरी पर पढ़ रहे ६० बच्चों की कक्षा में सवाल किया कि जो बच्चे इंजीनियर या डॉक्टर बनाना चाहते हैं वे हाथ उठायें. केवल दो हाथ उठे. लेकिन जब उन्होंने पूछा कि कितने बच्चे जेहाद लड़ना चाहते हैं तो सारे हाथ उठे.
आज दुनिया को और साथ हीं इस्लाम की सही शिक्षा को मानने वालों को इस नए खतरे से लड़ना होगा क्योंकि गरीबी और अज्ञानता में पल रहे करोड़ों बच्चों को “जन्नत की ७२ हूरों” के लालच में गुमराह कर निर्दोषों की हत्या करने वालों को इस देश या उस देश का सामान्य अपराधी समझना अपने को और आने वाली पढ़ी को शुतुर्मुर्गी छलावे में डालना होगा.
१९ वीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटेन के चार बार प्रधानमत्री रहे दुनिया के मशहूर स्टेट्समैन ग्लेडस्टोन ने अनायास हीं नहीं कहा था कि जब तक धार्मिक ग्रंथें में कट्टरता रहेगी दुनिया में शांति नहीं रह पायेगी.
lokmat
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