Monday, 2 May 2016

कराहती न्यायपालिका - समाधान क्या है?


न्यायपालिका कराह रही है. देश के मुख्य न्यायाधीश सार्वजनिकरूप से रो पड़ते हैं. जजों की कमी है लिहाज़ा जनता को दशकों तक न्याय नहीं मिल पा रहा है. देर से हीं सही अगर न्याय मिलता भी है तो जरूरी नहीं की सही हो क्योंकि अमरीका में एक जज चार दिन में एक केस निपटाता है जबकि भारत में रोजाना आठ केस. या यूं कहें कि हर ४५ मिनट एक जज केस पढ़ भी लेता है पक्ष-विपक्ष की दलीलों को को सुन भी लेता है और फैसला लिख भी देता है. अगर न्यायपालिका में छुट्टियों का आंकलन शामिल कर दिया जाये तो शायद हर केस को निपटने का समय घट कर मात्र २५ मिनट हीं रहेगा. इनमें वे केस भी शामिल हैं जिनमें अभियुक्त को फांसी भी हो सकती है या जेल की सजा भी. वे केस भी शामिल हैं जिनमें गरीब बुढिया की एक मात्र दुकान  कोई मक्कार भतीजा हड़प जाना चाहता है और बुढ़िया सड़क पर भीख माँगने को मजबूर हो जाती है या जहर पी कर मौत को गले लगा लेती है. इस रफ़्तार से केस निपटाने में शायद आइंस्टीन का दिमाग भी फेल हो जाये.

लेकिन ठहरिये ! हमें अपने को कोसने की आदत हो गयी है. हर बात पर हम अमरीका और चीन से तुलना करते हैं और फिर “भारत कभी सोने की चिड़िया थी, अँगरेज़ सोना लूट ले गए और पिछले ७० सालों में बचा पीतल भ्रष्ट राजनीतिक वर्ग और सड़े सिस्टम की भेंट चढ़ गया” के भाव में बताते हैं कि कैसे चीन शिक्षा में बजट की इतना प्रतिशत , स्वास्थ्य में उतना और हथियार खरीदने में उससे भी ज्यादा खर्च करता है. हम भूल जाते हैं कि भारत का आबादी घनत्व ३६८ प्रति किलोमीटर स्क्वायर है जबकि चीन का १४२, इंग्लैंड का २१६, ब्राज़ील का २४, रूस का ८.३ अमरीका का ३२ है. मूल रूप से कृषि –आधारित अर्थ व्यवस्था में जब संसाधनों पर इतना दबाव पडेगा तो विकास की रफ़्तार धीमी तो रहेगी हीं और उस पर से कोढ़ में खाज के रूप में भ्रष्टाचार.

फिर हम कहाँ से शुरू करें? हमारी प्राथमिकता क्या है? घुरहू , पतवारू या छेदी को पहले पेट में अनाज चाहिए, अनाज के लिए खेत को पानी चाहिए, दलित के बीमार पत्नी और बच्चे के लिए अस्पताल चाहिए  शिक्षा चाहिए. घर में शौचालय चाहिए. बीमार रहेंगे तो बचेंगे नहीं (बाल मृत्यु दर ३.७ प्रतिशत है) , बच गए तो पढ़ –लिख नहीं पाएंगे (गरीबों और दलितों महिलाओं में साक्षरता आज भी कई राज्यों में ३५ प्रतिशत से कम है). और इस तरह के तमाम अभाव में जीने वाले लोगों की संख्या ७५ प्रतिशत है. ऐसे में तात्कालिकता के पैमाने पर उन्हें न्याय की ज़रुरत शायद उतनी नहीं जितनी जीवन की अनिवार्य शर्तों की.

अब न्याय न मिलने का या देर से मिलने का या न्याय की गुणवत्ता खराब होने का एक खतरनाक पहलू देखें. बिहार का आबादी घनत्व देश के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है याने १०५६ व्यक्ति प्रति किलोमीटर स्क्वायर या अमेरिका के आबादी घनत्व से ३० गुना ज्यादा. इस राज्य में जमीन पर इतना दबाव है कि ७० प्रतिशत हत्याएं परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से जमीन को लेकर हो रही हैं. अंग्रेज़ी की कहावत “डॉग इट्स डॉग वर्ल्ड” (ऐसी दुनिया  जिसमें कुत्ता कुत्ते को खाता हो) बिहार में चरितार्थ हो रही ही. लिहाज़ा सिर्फ न्याय व्यवस्था दुरुस्त करने से शायद हीं स्थिति बेहतर हो सके. समाज में अभाव, अशिक्षा, रोजगार के अल्प अवसर की वजह से व्याप्त लम्पटता और राज्य अभिकरणों के भ्रष्ट लोगों और गुंडों-राजनीतिक वर्ग के बीच पनपा समझौता अभियोजन को प्रभावित करता है और न्याय प्रक्रिया को भी निष्पक्ष नहीं रहने देता. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक सजा की दर में बिहार देश के सभी राज्यों से पीछे है. सन २०१४ में अगर १०० लोगों पर आपराधिक मुकदमें थे तो केवल १० को सजा हो पाई जब कि सन २०१३ में १५.६ को हुई थी. राष्ट्रीय औसत ४५ प्रतिशत है।

इन सब का नतीजा यह है कि इन राज्यों में न केवल न्याय-व्यवस्था से बल्कि पूरे तंत्र से जनता का विश्वास उठ जाता है और हार कर वह थाने या ब्लाक में जा कर अपनी समस्या बताने की जगह मोहल्ले के उस गुंडे को तलाशने लगता है जो हाल हीं में खद्दर पहनने लगा है. ऐसे राजनीतिक रॉबिनहुड किसी न किसी जाति के होते हैं और वे अपनी जाति के लोगों के लिए “संकटमोचन का रूप” धारण कर लेते हैं. बिहार के हाल के चुनावों में जाति का संयोजन और जद (यू) –राजद की विजय का सहीं विश्लेषण इस बात को दर्शाता है. यह रॉबिनहुड शीर्ष पर बैठे नेताओं के लिए भीड़ जुटा सकता है और अवसर हो तो बाँहों की ताकत भी दिखा सकता है. अपराध के लिए जाने जाने वाले और वर्षों से जेल में बंद शहाबुद्दीन को राजद का पदाधिकारी बनाना यह सिद्ध करता है कि प्रजातंत्र की मूल अवधारणा कहीं दम तोड़ चुकी है.

देश में पुलिस –आबादी अनुपात वैश्विक औसत से आधी है, उत्तर प्रदेश में चौथाई और बिहार में उससे भी कम. तो क्या ज़रूरी नहीं कि पुलिस की  संख्या बढ़ाई जाये? क्या जिन राज्यों में पुलिस की संख्या औसत से ज्यादा है वहां अपराध कम हुए हैं? क्या सजा की दर बढ़ी है ? नहीं? ऐसे तमाम उदहारण हैं जिनमें अपराधी को सेशंस कोर्ट से सजा हुई। अपराधी ने हाई कोर्ट में अपील की। हाई कोर्ट ने सेशंस कोर्ट को डांट लगते हुए सज़ा को “ससम्मान रिहाई” में बदल दिया लेकिन फिर जब राज्य सर्वोच्च न्यायलय पहुंचा तो देश की सबसे बड़ी अदालत ने हाई कोर्ट को गलत ठहराते हुए और सेशंस के फैसले की प्रशंसा करते हुए अपराधी की सजा फिर बहाल कर दी. अगर राज्य सरकार ऊपर की अदालत में न जाती तो अभियुक्त सीना तान कर घूमता. या अभियुक्त खेत बेंच कर या कोई और अपराध करके पैसे खर्च करके अच्छा वकील खड़ा न करता तो कई साल पहले हीं जेल की सलाखों के पीछे होता. क्या न्याय प्रणाली दोषपूर्ण नहीं है?

दरअसल भारत के मुख्य न्यायाधीश का सार्वजनिक मंच से भावातिरेक में आना गंभीर है लेकिन समस्या का निदान मात्र जजों की संख्या बढ़ाने  से नहीं होगा. व्याधि कहीं और है और वह एक नहीं कई हैं और हर व्याधि दूसरी व्याधि को जन्म दे रही है. 
 
lokmat/jagran

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