अपने को धर्म-निरपेक्ष होने अर्थात बौद्धिक ईमानदारी का ठप्पा लगवाने के लिए ज्यादा मेहनत करने की ज़रुरत नहीं होती. अगर आपके नाम के अंत में सिंह, शुक्ला, जाटव, यादव लगा है या पहले विकास, रामचंद्र या सुच्चा लगा है और संघ, हिन्दुत्त्व, भारतीय जनता पार्टी , बहुसंख्यक अवधारणाओं या फिर हिन्दू देवी देवताओं के खिलाफ बोल सकते है तो आप सेक्युलर हैं. यह मान लिया जाएगा कि आप बौद्धिक रूप से ईमानदार है और चूंकि बौद्धिक रूप से ईमानदार हैं तो आर्थिक, सामाजिक, चारित्रिक रूप से गलत हो हीं नहीं सकते. और कहीं अगर आप इससे भी सहज रास्ते से सेक्युलर होना चाहते हैं तो किसी आज़म, किसी ओवैसी या किसी फायरब्रांड मौलाना की बात को सही ठहराइये. आप की सेकुलरिज्म चमक जायेगी. और अगर सेकुलरिज्म चमक गयी तो बाकि सारी योग्यताएं आपके खाते में बोनस के रूप में होंगी.
भारतीय चिंतन परम्परा में सीधे सोचने, बेबाकी से तथ्यों को देखने या निरपेक्ष रूप से विश्लेषण करने की पद्धति शायद विलुप्त सी हो गयी है. एक बुद्दिजीवी या तो ताउम्र इस धारा का होता है या उस धारा का. जो दादरी घटना में अखलाक की मौत पर क्रुद्ध हो कर देश के धर्मनिरपेक्ष तानेबाने के टूटने की आशंका पर जार-जार आंसू बहता है और बहुसंख्यक हिन्दुओं के खिलाफ आग उगलता है क्या मजाल कि वही व्यक्ति पश्चिम बंगाल के मालदा स्थित कलियाचक कस्बे में अल्पसंख्यकों (उस क्षेत्र में बहुसंख्यक) द्वारा थाने पर हमला करने और रिकॉर्ड जलाने, तन्मय तिवारी के पैर में गोली मारने और एक १३ वर्षीय हिन्दू बालिका को पीटने का निंदा उसी क्रोध-मिश्रित तर्क के साथ करे. मैं यहाँ प्रत्रकारीय सीमा का अतिक्रमण कर रहा हूँ. आज की पत्रकारिता में हिन्दू आक्रान्ता का नाम तो लिया जा सकता है लेकिन गलती से भी “मुसलमान” शब्द कहना या मुस्लिम हमलावरों के नाम लेना गलत माना जाता है. अख़लाक़ को मारने वाले हिन्दू ठाकुर थे यह कह सकते हैं लेकिन तन्मय को गोली मार कर किसने घायल किया यह नहीं. हिंदू लड़की से अगर किसी मुसलमान लड़के ने बदतमीजी कि तो लडकी का नाम तो ले सकते हैं पर गलती से मुसलमान आरोपी का नहीं. इससे हमारी “सेक्युलर” फैब्रिक्स खराब होती है. इसीलिये हम उसे “एक अन्य समुदाय का” लिखते हैं.
अख़लाक़ को जिन लोगों ने मारा वे भी लम्पट अपराधी थे. राम भक्त तो कहीं से नहीं हो सकते. समाज के दुश्मन थे लेकिन क्या इस “सेक्युलर ब्रिगेड” को यह समझ में नहीं आता कि कालियाचक में जिन डेढ़ लाख मुसलमानों की भीड़ में से हीं कुछ निकल कर थाने पर हमला कर रहे थे या तन्मय के पैर पर गोली मार रहे थे वे भी अल्लाह की इबादत नहीं कर रहे थे. देश भर के आम मुसलमानों से पूछिए तो वह कालियाचक के हिंसा की भी निंदा करता है और दादरी की भी. आम हिन्दू भी यही करता है. उसे ना तो कालियाचक का उपद्रव सुहाता है न हीं अख़लाक़ का मारा जाना. फिर यह बात “सेक्युलर ब्रिगेड” को क्यों नहीं समझ में आती? जिस कुरआन-ए-पाक में “अह्दिनास सिरातुल मुस्तकीम ”ऐ खुदा, मुझे सीधा रास्ता दिखा” कह कर ईश्वर का आह्वान किया गया हो वह मालदा की घटना की इज़ाज़त तो कतई नहीं देता.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मीडिया में भी ऐसे तत्व हैं जो “सत्य” अपने हिसाब से गढ़ते हैं. यही वजह है कि आज कालियाचक को मीडिया में वह प्राथमिकता नहीं मिलती जो अख़लाक़ की हत्या को दी गयी. उत्तर प्रदेश में हिन्दू महा सभा का कमलेश तिवारी अगर देश की व्यवस्था के लिए ख़तरा है तो क्या इदारा-ए-शरिया जिसके आह्वान पर मुसलमान कालियाचक में इकट्ठा हुए थे को इंसानियत का अलमबरदार कहा जा सकता है? कमलेश ने सलालिल्लाहे अलेहे वसल्लम मुहम्मद साहेब के बारे में बेहूदी बाते कही तो क्या इस इदारे के लोगों को थाना जलाने का या तन्मय को गोली मारने का लाइसेंस मिल गया?
क्यों नहीं भारत की मीडिया जो दिन-रात हांफ –हांफ कर अख़लाक़ के मरने पर भारत सरकार का मर्सिया पढती रही (जब कि मोदी सरकार का उससे कुछ लेना देना नहीं था) और “सब कुछ लुट रहा है” के भाव में देश के बहुसंख्यक वर्ग की लानत-मलानत करती रही, कालियाचक में भी उसी शिद्दत से रिपोर्टिंग कर रही है? भारत सरकार के एक मंत्री ने कहा “अख़लाक़ की हत्या आपराधिक घटना है”. मंत्री का यह बयान गलत था. मारने वाले अख़लाक़ के यहाँ चोरी करने या डाका डालने नहीं गए थे. लिहाज़ा देश भर के “सेक्युलर” मीडिया ने और सेक्युलर बुद्दिजीवियों ने उस मंत्री को जी भर के कोसा. अच्छा लगा. पर जब पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी कलियाचक की घटना भी ठीक यही बयान दिया तो अचानक “सेक्युलर ब्रिगेड” को क्यों सांप सूंघ गया?
जिन्होनें अख़लाक़ की हत्या में देश का “संवैधानिक सेक्युलर” ताना-बाना टूटता देखा और प्रतिक्रया में अपने अवार्ड वापस किया क्या उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो जन-धरातल पर आ कर फिर कोई अवार्ड वापस करे? पश्चिम बंगाल तो बुद्दिजीवियों का गढ़ रहा है. कहाँ गए वे सारे दर्ज़नों बुद्दिजीवी, वो आमिर खान जिसकी पत्नी को इतना डर पैदा हो गया कि वह आमिर को देश छोड़ने की सलाह देने लगी? कैसे हो जाती है एक घटना “इनटोलरेंस” की पराकाष्ठा और दूसरी मात्र आपराधिक घटना. क्या इस घटना के बाद कालियाचक के अल्पसंख्यक हिन्दुओं में भी वही दहशत नहीं होगी जो आमिर को दादरी की घटना के बाद हुई? क्या उन हिन्दुओं की सुरक्षा को लेकर के लिए बुद्दिजीवियों का भाव अलग होना चाहिए? आखिर तन्मय को गोली शरीर के उपरी भाग में भी लग सकती थी और वह भी अख़लाक़ की गति को प्राप्त हो सकता था?
जब कांग्रेस सरकार में आये और इस “सेक्युलर ब्रिगेड” के बुद्दिजीवियों को तमाम संस्थाओं का चेयरमैन बनाये तो वह धर्म-निरपेक्षता को मज़बूत करता है लेकिन अगर भारतीय जनता पार्टी उन्हीं पदों पर प्रतिष्ठित लेकिन एक खास विचारधारा के हिमायती लोगों को ले आये तो वह भारतीय “गंगा-जमुनी” संस्कृत पर हमला.
देश में स्वतंत्र, पूर्वाग्रह-शून्य विचारकों की बेहद टोटा है. सब खेमे में बटें हुए हैं. नतीजतन आज देश में संवाद को सही दिशा नहीं मिल पा रही है.
jagran
yunan-o-misr-o-ruma sab mit gayi jahaan se
ReplyDeleteab tak magar hai baaqi naam-o-nishaan hamara
kuchh baat hai ki hastī miti nahin hamaarī
sadiyon raha hai dushman daur-e zamaan हमारा
अल्लामा इक़बाल की यह बात सही नहीं होती अगर हिन्दू बहुतायत में नहीं होते. बचपन में स्कूल के रस्ते में नक्खास कोना पड़ता था.हम उसे पार करते हुए दहशत में रहते थे.सांप्रदायिक तनाव शुरू होते ही स्कूल जाना बंद हो जाता था. मुल्क ने तरक्क़ी की और तालीम हर आम-ओ खास तक पहुंची मगर हालात वही के वही रहे.मालदा, पूर्णिया या फतेपुर का जहानाबाद माना की सांप्रदायिक तत्वों ने पृष्टभूमि तैयार की, लेकिन कोई भी प्रोवोकेशन अपराध के लिए जायज नहीं हो सकता.अल्पसंख्यकों को सेक्युलर प्रशासन को नियत्रण करने के लिए समय तो देना ही होगा.उत्तर प्रदेश में सरकार इतनी जागरूक है. पुलिस प्रमुख अल्पसंख्यक वर्ग से बनाये गए हैं ताकि यह वर्ग अपने को सुरक्षित समझे और सांप्रदायिक शक्तियों के मनसूबे कामयाब न होने दे.
यही सत्य भारतीय मीडिया यदि स्वीकार कर ले तो पीतपत्रकारिता जड़ समाप्त् हो जायेगी और निर्मल भारत का निर्माण सम्भव हो जायेगा ।
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