Sunday, 6 April 2014

चुनावी जंग में कमर के नीचे हमले के नुकसान



मोदी के टुकडे-टुकडे कर देंगे”. उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में कांग्रेस विधायक का यह बयान अभी ठंडा भी नहीं हुआ था कि एक हीं दिन में दो और बयान आये. समाजवादी पार्टी के आजम खान ने भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मेदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी को “पिल्ले का बड़ा भाई” कहा जबकि समाजवादी पार्टी से कुछ समय पहले नाता तोड़ कांग्रेस में आ कर फिर मंत्री बने बेनी प्रसाद वर्मा ने मोदी को “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर एस एस) का सबसे बड़ा गुंडा” करार दिया.
जन धरातल पर भाषा अमर्यादित होने के दो कारण होते हैं. पहला उस व्यक्ति की संस्कृति और दूसरा प्रति -तर्क (काउंटर-आर्गुमेंट) करते वक्त अपने पक्ष में तथ्यों के अभाव. विधायक की भाषा बिगड़ना तो संस्कृति में गड़बड़ी का द्योतक है पर साल-दर -साल मंत्री रह कर संसद या विधान सभा में तक़रीर करने के अनुभव के बाद अगर आज़म खान और दशकों तक राजनीति में रहने के बाद बेनी प्रसाद वर्मा सड़क छाप भाषा का और मोहल्ले में भले लोगों को डराने वाले तत्वों (?) जैसे भाव का इस्तेमाल करते हैं तो इससे मोदी का नहीं बल्कि उनका और साथ में प्रजातंत्र का नुकसान होता है. जनता को शक होने लगा है कहीं समय के साथ राजनीति लंपटता (लुम्पेनाइज़ेश्न) का पर्याय तो नहीं हो गयी है.
द्वंदात्मक प्रजातंत्र (एड्वर्सेरियल डेमोक्रेसी) में एक-दूसरे पर तीखे कटाक्ष तक सर्व-मान्य प्रक्रिया है. अमेरिका से लेकर सभी यूरोपीय प्रजातांत्रिक देशों में यह द्वन्द चलता है. लेकिन उसमें शुद्ध तथ्यों के आधार पर तर्क –वाक्य गढ़े जाते है और जनता पर प्रभाव डालने के लिए उन तर्क-वाक्यों को प्राथमिकता के आधार पर क्रम-बद्ध किया जाता है. लेकिन यह भारत हीं है जहाँ कई बार इसका स्तर इनता नीचे गिर जाता है कि लगता है मोहल्ले के दो अवांछित तत्वों में झगडा हो रहा है.
क्या वजह है इन ओछी टिप्पणियों के पीछे? कांग्रेस या उसके मंत्री बेनी प्रसाद से कम से कम यह तो अपेक्षा की हीं जा सकती है कि वे मोदी के बहुचर्चित विकास माडल के बारे में “अपना” सत्य (अगर कोई है तो) रखे. गुजरात चुनाव २०१२ से लेकर आज तक इक्का-दुक्का कमज़ोर आवाज में इस विकास के कुछ पैरामीटर (जैसे बाल मृत्यु दर , क्षेत्र-विशेष में पानी की कमी या ग्रामीण क्षेत्र में कम रोजगार के अवसर) पर हल्की टिपण्णी के अलावा कांग्रेस रणनीतिकार कुछ भी नहीं ला पाए है जो जनता को विश्वास दिला पाये. यह विकास माडल मोदी का सबसे बड़ा यू एस पी है. द्वंदात्मक प्रक्रिया में कांग्रेस की रणनीति का सबसे बड़ा बिंदु इस यू एस पी को खोखला बताना होना चाहिए था. सत्ता में रहने के कारण कांग्रेस या बेनी सरीखे लोगों को तो वह सभी आंकड़े उपलब्ध होने चाहिए जो सामान्य वोटरों को तो छोडिये कई गैर-सत्तानशीन राजनीतिक दलों को भी उपलब्ध नहीं हो सकते. कांग्रेस रणनीतिकारों में से एक भी नहीं है जो काउंटर –तर्क के लिए कुछ भी तथ्य निकाल पाए और उन्हें विश्वसनीय ढंग से जनता के सामने परोस पाए.
दूसरा कांग्रेस जो कि प्रमुख सत्ताधारी दल और आज भी देश की सबसे बड़ी पार्टी है. लेकिन इस चुनाव में कहीं भी नहीं लगता कि सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के अलावा कोई अन्य नेता भी प्रचार के लिए दिन-रात एक किये है. दरअसल पिछले चुनावों से तुलना की जाये तो कांग्रेस सभी दोयम दर्जे के नेताओं ने दस साल सत्ता का मज़ा लूटने के बाद गाँधी परिवार को आज अकेला छोड़ दिया है. लिहाजा तीसरे दर्जे के लोग अपनी संस्कृति और अपनी कुंठा के हिसाब से मोदी पर हमला कर रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पास कहने को कुछ नहीं है. उत्तर प्रदेश की बदहाली , बिहार में नीतीश सरकार का विकास का छलावा और राजनीतिक अवसरवादिता से ठगी जनता को अच्छा मुद्दा बनाया जा सकता था. केंद्र द्वारा २००५ में शुरू किये गए एन आर एच एम् में किस तरह कभी मायावती सरकार के तत्कालीन मंत्रियों ने हजारों करोड डकार लिए यह भी मुद्दा बन सकता था. किस तरह केंद्र से भेजा गया अनाज बिहार में सरकारी अकर्मण्यता और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया और गरीबों का पेट और अधिक पीठ से लग गया यह मुद्दा हो सकता था.
लेकिन पिछले पांच साल किसी दिग्विजय को बेलगाम छोड़ दिया गया कि वह अपने अतार्किक और कई बार भौंडे अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक मुद्दे को उठा कर गैर –ज़रूरी बहुसंख्यक एकता को हवा दे और कांग्रेस की विकास के प्रति संजीदगी पर प्रश्न-चिन्ह खड़ा करे. कई बार तो मन में प्रश्न उठता था कि दिग्विजय सिंह कांग्रेस के साथ हैं भी कि नहीं.
देश बदला है. मंदिर-मस्जिद फिर परवान नहीं चढ़ सकते. प्रति-व्यक्ति आय, शिक्षा का स्तर, सूचना की बाढ़ और तज्जनित तर्क शक्ति के बेहतर होने से जनता की राज्य से अपेक्षाएं बढ़ी हैं. एक बड़ा मध्यम वर्ग पैदा हुआ है जो जाति –धर्मं से ज्यादा नौकरी , शिक्षा , स्वास्थ्य सरीखे जन-सेवा के क्षेत्र में राज्य से डिलीवरी चाहता है. वह भ्रष्टाचार के प्रति शून्य –सहिष्णुता (जीरो –टोलरेंस ) रखने लगा और यह मानने लगा कि सत्ता में बैठा आदमी अगर इसे रोक नहीं सकता तो वह भी सीधा दोषी है . ना तो कांग्रेस यह कह कर बच सकती थी कि २-जी का घोटाला करने वाला ए राजा गठबंधन दल का था और हमने उस मंत्री को निकाल दिया. क्योंकि तब पवन बंसल का मुद्दा इस तर्क को खोखला साबित करेगा. कांग्रेस रणनीतिकार दिग्विजत सिंह को यह नहीं समझा सके
कांग्रेस यह भी नहीं बता सकी कि जन-सेवा के क्षेत्र यानि स्वास्थ्य के लिए एन आर एच एम् , शिक्षा के लिए सर्व शिक्षा अभियान , ग्रामीण रोजगार के क्षेत्र में मनरेगा क्यों वांछित परिणाम नहीं दे पाए और गलती कहाँ राज्य सरकारों की रही. शिक्षा, सूचना और खाद्य सुरक्षा का अधिकार क्या वाकई जमीन पर बदलाव लाया यह भी जनता को पता नहीं चल सका,

नतीजा यह हुआ कि कोई मंत्री या कोई विधायक सड़क छाप भाषा में चुनाव की लड़ाई लड़ने लगा.  

rajsthan patrika

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