Friday, 21 March 2014

वंशवाद की राजनीति (फेमिलीएंजा) की जड़ में है अतार्किक जनचेतना


भर्तृहरि के नीतिशतक में इस श्लोक है “वारंग्नेव नृपनीतिर्नेक रूपा” (याने तवायफ की तरह हीं राजनीति के भी अनेक रूप होते हैं). यहाँ राजनीति का तात्पर्य राजनीति करनेवालों से है. इनमें से अधिकांश  आते तो हैं जन-कल्याण की भावना के नाम पर लेकिन जल्द हीं भ्रष्ट, तानाशाह , समाज को लड़वाने वाले और कई बार व्यभिचारी बन जाते हैं. सबसे बाद में इनका परिवार मोह इन पर भरी पड़ता है और ये फिर “हमारे साथ हीं (या अवस्था नहीं हो तो हमारी जगह) हमारे बेटे, पुत्री , दामाद या अन्य निकट रिश्तेदार को भी चुनो” के जुगाड़ में लग जाते हैं. यह बीमारी जितनी अल्प- शिक्षित नेताओं को पकड़ती है उतनी हीं अधिक शिक्षा वाले को भी. हम इसे “फेमिलीएंजा” नामक वायरस की संज्ञा दे सकते हैं.

राष्ट्रीय जनता लालू यादव का पुत्री मोह में पार्टी के टूटने तक जाना, या कांग्रेस नेता और देश के वित्त-मंत्री पी चिदंबरम का अपनी जगह अपने बेटे को टिकट दिलवाना उसी  “फेमिलीएंजा“ के सिम्प्टोम का संकेत देते हैं.

दरअसल इस बीमारी के होने के पीछे रोगी की गलती नहीं होती जीतनी समाज की. बल्कि यूं कह सकते हैं अगर इस बीमारी की अंतर में निहित अनैतिकता का दोषारोपण करना हो तो वह राजनीतिज्ञों से ज्यादा समाज की सोच पर की जानी चाहिए.

मार्क्सवादी दर्शन में ऐतिहासिक भौतिकवाद की विस्तार से चर्चा है जिसके तहत राज्य की उत्पत्ति की स्थितियों की विवेचना है. इसमें यह यह बताया गया है कि किस तरह अज्ञानी लोगों को चालाक शोषक वर्ग ने राजा की संस्था में दैवीय गुण बताये और उनको ईश्वर का भय दिखा कर जनता की सम्पूर्ण निष्ठां (संप्रभुता) हासिल की. याने राजा अगर शाशन करे तो ईश्वर की इच्छा , अगर बलात्कार करे तो भी ईश्वर की इच्छा और अगर उदार हो तो वह भी ईश्वर की हीं इच्छा. लिहाज़ा राजा को “फेमिलीएंजा” की बीमारी लगना स्वाभाविक था क्योंकि वह भी ईश्वर की इच्छा हीं मानी गयी.

आज का भारत भी इससे उबार नहीं पाया है. वह यह सोच भी नहीं पाता कि नेहरु की बाद इंदिरा क्यों? वह तो “गूंगी गुडिया “ हुआ करती थीं आखिर कब से समाज कल्याण का भाव उनके मन में आने लगा? हमने उन्हें वोट देना शुरू कर दिया. इमरजेंसी लगाते हुए इंदिराजी  ने कहा “ कुछ ताकतें हमारी सरकार की गरीबी हटाने के और महिलाओं को मजबूत करने के कार्य को नहीं चाहती हैं लिहाज़ा लोगों को भड़का रहीं हैं. हमें आपातकाल लगते हुए ख़ुशी नहीं हो रही है पर हमें जन-हित को ध्यान में रख कर यह कदम उठाना पड़ा है” .

फिर इंदिराजी की हत्या की गयी. तत्कालीन ७५ करोड़ की जनसंख्या में एक भी आदमी नहीं मिला जो देश का नेतृत्व करे? उनका पुत्र जिसका राजनीति से रिश्ता सिर्फ घर में आने –जाने वाले खद्दरधारियों को मान के सामने सजदा करते देखने से ज्यादा कुछ नहीं था, सर्व सम्मति से देश का रहनुमा बनता है और हवाई जहाज की जगह देश चलाने लगता है. चुनाव होते हैं और कांग्रेस पार्टी को रिकॉर्ड ४८.५ प्रतिशत मत के साथ ४१५ लोकसभा सीटें मिलती हैं. यही जनता चुनती है और इस बात पर कि माँ की राजनीति में भी वारिस होता है बेटा. राजीव की ह्त्या के बाद पूरा का पूरा कांग्रेस उनकी पत्नी सोनिया गाँधी के सामने घुटने टेक कर बैठ जाता है यह कहता हुआ कि कांग्रेस को हीं नहीं देश को भी आप हीं बचा सकती हैं. देश फिर वोट करता है. अबकी बार पत्नी के नाम पर. दूसरी  बार कांग्रेस से कोई गैर-नेहरु परिवार का व्यक्ति प्रधान मंत्री बनता है. (पहली बार लाल बहादुर शास्त्री बने तो लेकिन असमय मौत के सहकार हुए.  ६५ साल के प्रजातंत्र में जनता ने कोई सीख नहीं ली नहीं. ना हीं  १२७ साल के कांग्रेस ने कोई अन्य नेता पनपाया. नरसिंहराव ज्यादा दिन चल नहीं पाए और कांग्रेस फिर हिचकोलों के बाद नेहरु परिवार के पास हीं बनी रही.

लालू जेल जाते हैं तो पत्नी को सत्ता सौंप जाते हैं, कमलापति की तीन पीढ़ियाँ राजनीति में जोर आजमायिश कर रहीं हैं. दलित नेता पासवान भी राजतन्त्र में शुरू हुई इस गैर-प्रजातान्त्रिक बीमारी के शिकार हुए और जब बेटा फिल्म में नहीं चल पाया तो “खोटे  सिक्के को अंधे भिखारी को देने की तरह “ बिहार की जनता पर लाद दिया. भारतीय जनता पार्टी में जब राजनाथ सिंह बेटे को राजनीति में लाने के लिए कसमसा रहे हैं तो उन्हें बुरा क्यों लगेगा. सो पासवान से समझौता किया. पासवान की बेटा जीता तो देश का मंत्री बनना तय, नहीं बना तो बाप मंत्री तो बनेंगे हीं. तब वह उनके काम में हाथ बटायेगा जैसे तत्कालीन रेल मंत्री पवन बंसल के कार्यों में उनका भांजा.

गलती किसकी है? क्यों  ६५ साल बाद भी जनता में यह समझ नहीं आ पा रही है कि बड़े पासवान के साथ छोटा पासवान क्यों, नेहरु के ५० साल बाद भी राहुल क्यों. लालू के बाद घरेलू काम में दक्ष राबड़ी क्यों या क्यों उनकी बेटी मीसा? क्या आज भी हम यह समझ नहीं विकसित कर पा रहे हैं कि अपने समाज से ऐसे आदमी निकालें जिनमें वाकई जन-कल्याण की भावना हो. एक आंकड़े के अनुसार भारत में हर १५ घरों में से एक का सदस्य प्रजातान्त्रिक संस्थाओं के चुनाव में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संलिप्त होता है. ग्राम सभा हो या छात्र संघ. अगर भारत की इस नेता बनाने की फैक्ट्री में एक करोड़ से ज्यादा लोग लेगे हैं तो क्यों ना अब कचडा माल (जो कहीं फिट नहीं हो रहा वह राजनीति में आ जाता है) की जगह अच्छे लोगों को प्रोत्साहित करें ताकि देश का भविष्य नेतापुत्र या नेता  के परिवार पर निर्भर ना रहे. इस देश का बजेट कोई १८ लाख करोड़ रुपये का है इसे घटिया नेतृत्व के हाथों सौपना देश के भविष्य को राजाओं और कलमाड़ीयों को सौपने जैसा होगा.

देश जितनी जल्द अच्छी सोच से नेता चुनना शुरू करेगा उतनी हीं जल्द नेताओं का “फेमिलीएंजा” से छुटकारा पा सकेंगे.    
rajsthan patrika

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