इतिहास गवाह है कि
जनांदोलन की सफलता के लिए तत्कालीन समाज की सामूहिक चेतना और आन्दोलन का नेतृत्व,
दोनों की हीं भूमिका होती है. जितनी यह बात सही है कि नेता सामूहिक चेतना से का
उत्पाद होता है उतनी हीं यह भी कि नेतृत्व गलत होना आन्दोलन को ख़त्म कर सकता है.
कहने का मतलब दोनों --- सामूहिक चेतना और तज्जनित आन्दोलन के रहनुमा -- के बीच एक
अद्भुत अन्योंयाश्रितता है. एक ठहर जाये तो दूसरा दम तोड़ देता है और अगर दूसरा
अक्षम या नेतृत्व से अपेक्षित चरित्र से कम या ज्यादा हो तो पहला निष्फल हो जाता
है.
मार्क्सवादी द्वंदात्मक
भौतिकवाद में इस यक्ष प्रश्न कि जीव की चेतना और पदार्थ में कौन किसका उत्पाद है
को लेकर एक उदाहरण है. पानी गरम कीजिये. कुछ ईंधन देने पर पानी १० डिग्री
पहुंचेगा. और ईंधन दीजिये २० डिग्री होगा , ईंधन देते जाइये और पानी की तापमान
बढ़ता जाएगा. ९० डिग्री होगा , ९५ होगा फिर ९९ होगा लेकिन इसके बाद अगर ईंधन दिया गया
तो उसी पानी में एक गुणात्मक परिवर्तन होगा और वह द्रव की अवस्था से गैसीय अवस्था
में पहुँच जाएगा. यानी पदार्थों का अचानक संश्लेषण (सडेन अग्लोमरेशन) चेतना को
जन्म देता है. सामूहिक चेतना के साथ भी कुछ ऐसा हीं होता है. इसमे अचानक गुणात्मक परिवर्तन होता है. भारत की सामूहिक चेतना के साथ भी कुछ ऐसा हीं
हुआ. ६५ साल तक शोषण होता रहा, भ्रष्टाचार की चौखट पर गरीबी सर धुनती रही प्रसाद
के “आंसू” की पंक्ति “टकराती, बिलखाती सी, पगली सी देती फेरी” के भाव में.
भ्रष्टाचार के प्रथम
चरण में गरीबनवाज़ संस्थओं पर बैठे लोग “तुन जिन्दा हो इसका प्रमाण दो” कह कर
भयादोहन करते रहे. इसे “शेकडाउन सिस्टम ऑफ़ करप्शन” या “कोएर्सिव फॉर्म ऑफ़ करप्शन” के
रूप में पूरे विश्व में जाना जाता है. भयंकर गरीबो, अज्ञानता और अशिक्षा वाले समाज
में यह खूब फलता –फूलता है. लेकिन जब समाज थोडा शिक्षित और तार्किक होने लगता है
तो शोषकवर्ग इसे बदल कर “पे -ऑफ सिस्टम ऑफ़ करप्शन “ या “कोल्युसिव फॉर्म ऑफ़
करप्शन” में बदल देता है. जिसमें गरीब से सीधा दोहन ना कर उसके नाम पर राज्य
अभिकरण कल्याण कार्य करते हैं और इंजिनियर और ठेकेदार-अपराधी , मंत्री और
उद्योगपती एक समझौते के तहत पैसा आपस में बाँट लेते हैं. यह खतरनाक दौर होता है.
इस दौर के भ्रष्टाचार में दोष किसी एक
व्यक्ति पर नहीं मढ़ा जा सकता है क्योंकि बड़ी हीं खूबसूरती से गरीब के कल्याण और
विकास की अपरिहार्यता के नाम पर कानून की व्याख्या बदल दी जाती है. पिछले कुछ
वर्षों के घोटाले इसका स्पष्ट उदाहरण हैं. इस किस्म के भ्रष्टाचार में प्रूफ या
साक्ष्य नहीं मिलता जिसके बिना हमारा अपराध न्यायशास्त्र पंगु रहता है यह बताते हुए कि भले हीं घर
मंत्री का हो, अगर भांजे ने खाया तो मंत्री बंसल कैसे दोषी. इसी के बारे में राजीव
गाँधी ने कहा था कि भेजते हैं एक रुपया पहुंचता है १५ पैसा.
लेकिन इसकी भी मियाद
होती है. जनता की कुंठा और “कोऊ नृप होय हमें का हानी” का उदासीन भाव पानी के भाप
में परिवर्तन होने का तरह अचानक बदलता है. अन्ना में वही गाँधी का अक्स दिखा.
जन्तर –मंतर पर युवा , बूढ़े यहाँ तक की भ्रष्ट भी आने लगे. भ्रष्टाचार को लेकर
“जीरो टोलरेंस” समाज में आने लगा. घूस लेकर बर्थ देने वाले टी टी को लोग स्व-स्फूर्त
गुस्से में पीटने लगे. चूंकि गाँधी ने देश को नैतिकता व व्यक्तिगत शुचिता की
अद्भुत मिसाल डी है लिहाज़ पूरा भारत भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन में भी अपने
अगुवा में उसी व्यक्तिगत शुचिता की अपेक्षा रखने लगा.
अरविन्द केजरीवाल ने
ऐसे समय में हीं इस आन्दोलन का रास्ता राजनीति और विशेषकर चुनावी राजनीति (सत्ता
की राह से) की ओर मोड़ दिया. थोड़े- बहुत ना -नुकुर के बाद जनता ने इसे भी कबूल
किया. अरविन्द ने दिल्ली फतह किया. सत्ता में आये कांग्रेस के सहारे .
जाहिर है अब बारी थी
अरविन्द को यह सिद्ध करने की कि वह गाँधी वाली शुचिता रखते हैं. पर अचानक जनता ठगी
सी रही जब उसने पाया कि यह नेतृत्व तो उतना ही बौना है जितना ६५ से चल रहा
नेतृत्व. इसमें भी ए रजा को करूणानिधि टाइप नेतृत्व प्रश्रय देता है. यह भी कहता
है साडी वर्दी वाली सिक्यूरिटी से “पीछे हटो सामने दिखोगे तो मीडिया वाले सवाल
करेंगे कि आपने भी सिक्यूरिटी ली है जब कि जनता के सामने मन किया था.”
अरविन्द में भी वही
प्रतिशोध की भाषा मिली. “जेल में मीडिया वालों को बंद करवा दूंगा” , सिर्फ यह
बताता है कि यह आदमी उस नेतृत्व के लिए नहीं बना है जिसमें शुचिता का पैमाना अलग
होता है या जिसमें “विस्मिल (घायल) हो तो कातिल को दुआ क्यों नहीं देते” का शाश्वत
भाव होता है.
जनता ठगी सी रही. ६५
साल बाद यह चेतना इस भाव में आयी थी लेकिन बौने नेतृत्व ने उसे ऐसा झटका दिया कि
वह हतप्रभ हो गयी. प्रबुद्ध (लेकिन गैर सुविधाभोगी) वर्ग ने सबकुछ छोड़ कर इस
आन्दोलन में शिरकत करना चाहता था और वह भी इसलिए नहीं कि टिकट पा कर सांसद बनेंगे,
बल्कि एक नया भारत बनेगा पाया कि नेतृत्व तो उस सियार जैसा है जो रंग कर शेर बनाना
चाहता था लेकिन पानी में रंग धुल गया.
बच्चे की कसम गाँधी ने
कभी नहीं खाई थी. जिस दिन अरविन्द ने कसम खायी उसी दिन लगा कि यह भाषा तो जबरदस्त
आत्मिक ताक़त रखने की नहीं होती. खैर , कसम टूटा. जनता ने माफ़ किया. “सिक्यूरिटी
नहीं लेंगे क्योंकि आम आदमी को वही सुरक्षा नहीं होती” के ऐलान में फिर गाँधी
दिखा, जनता फिर खुश हुई. पर १२-१२ लोगों की सिक्यूरिटी के बीच में चलने का मीडिया
कवरेज हतप्रभ करने लगा. जनता सकपकाई पर विश्वास बना रहा.
पर जब जनता को पता चला
कि उनके “गाँधी” ने एक प्रार्थना पत्र दिया है (उसी भ्रष्ट सरकार को जिसके खिलाफ
लड़ने का प्राण किया था) कि चूंकि उनके
बच्चों की परीक्षा चल रही है इसलिए मुख्य मंत्री के रूप में मिले बंगले को खाली ना
करवाया जाये, तो ठगी सी जनता सोचने लगी गाँधी ने तो अपने सिद्धांतों के लिए
मरणासन्न बच्चे को अफ्रीका में अंडा नहीं खिलाया था और लेप लगा कर अंत में ठीक कर
लिया. भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन का नेतृत्व इतना निरीह ! उसे विश्वास नहीं हो
रहा है कि वह फिर एक बार ठगी गयी है.
जन-विश्वास की ताबूत
में आखिरी कील तब ठुकी जब किसी सड़क छाप नेता की तरह जो जीतने पर मोहल्ले के गुंडे
को देख लेने की धमकी देता है, अरविन्द ने कहा कि अगर वह सरकार में आये तो सभी
मीडिया वालों को जेल भेज देंगे. यह भाषा उसके सपनों के गाँधी की तो नहीं हो सकती?
संकट यह है कि ऐसी चेतना ६५ साल में एक बार आई थी. अब दोबारा इसके आने की संभावना निकट भविष्य में शायद ना
बन पाए.
jagran
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