दिक्, काल सापेक्षता को बिना समझे इस बार कांग्रेस ने वही गलती की जो कम्युनिस्ट पार्टियाँ या कुछ हद तक भारतीय जनता पार्टी पहले करती रही है. चुनाव के दो महीने पहले जाटों को आरक्षण देने महज इस बात की तस्दीक है कि सवा सौ साल पुरानी पार्टी आज भी यह नहीं समझ पा रही है कि परम्परागत राजनीति के दिन अब लद गए. आरक्षण से जो आम सन्देश गया है वह कांग्रेस की "चालाकी" का है जिसे अब राष्ट्रीय स्तर पर पसंद नहीं किया जा रहा है. जनता सड़क पर आरक्षण के लिए नहीं बल्कि बलात्कार के खिलाफ आने लगी है, भ्रष्टाचार को लेकर जबरदस्त आक्रोश है और महगाई का ना रुकना सरकार की असफलता का सीधा पैमाना बन गया है और विकास किसी पार्टी या पार्टी-समूह का सरकार में जाने या न जाने का पासपोर्ट बन चुका है.
कांग्रेस के शीर्षपुरुष राहुल गाँधी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर गाँधी की हत्या का आरोप लगाना भी उतना हीं बचकाना और स्थितियों को न समझ कर बोलने वाला कृत्य था. अतीत की बातें तब उठायी जाती है जब उन्हें मुद्दा बनाने की क्षमता हो. गाँधी की हत्या आज कोई मुद्दा नहीं रहा और किसने किया यह तो बिलकुल हीं नहीं. फिर भ्रष्टाचार के इतने मुद्दे कांग्रेस सरकार की झोली में जा चुके हैं कि अब वह अपने को गाँधी के नज़दीक तो नहीं हीं बता सकती है. ऐसे में गड़े मुर्दे को उखाड़ना कांग्रेस रणनीतिकारों के मानसिक दिवालियेपन को हीं उजागर कर रहा है. राहुल अगर गुजरात में विकास के सही आंकड़े देकर मोदी को घेरे तो वह ज्यादा उपादेय होगा चुनाव में.
क्यों किसी एक काल खंड में एक राजनीतिक दल या एक अवधारणा जनता का समर्थन पाती है और कभी-कभी यह समर्थन यहाँ तक जनता के मन में बस जाता है कि लोग उसके लिए जान तक की बाज़ी लगाने को तैयार हो जाते हैं? क्यों सारी अनुकूल स्थितियों के बावजूद भारत में साम्यवाद अंगीकार नहीं हुआ और अगर कुछ भाग में हुआ भी तो आज हाशिये पर चला गया? दरअसल, जनता की सामूहिक और व्यक्तिगत समझ तथा राजनीतिक सन्देश या विचारधारा में एक तादात्म्य होना चाहिए. इसके न होने पर कई बार वह सन्देश या अवधारणा जनता की समझ से ऊपर हो जाती है या पैर की नीचे से निकल जाती है. भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के हश्र के पीछे भी यही तर्क है.सम्प्रदाय, जाति, उपजाति या अन्य तमाम पहचान समूह में बंटा भारतीय समाज साम्यवाद के सन्देश को ग्रहण नहीं कर पाया और सर्वहारा क्रांति भारत में दम तोड़ती गयी.
आज से २० साल पहले कोई कांग्रेस या कोई भारतीय जनता पार्टी अगर जाति-आधारित आरक्षण का मुद्दा उठाती तो एक तथाकथित लाभ पाने वाले वर्ग खुश होता, सड़कों पर आता और बाकि सब लोग "कोई नृप होहिं हमे का हानी" के भाव में कुछ कुनमुनाते हुआ चुप हो जाता. लेकिन पिछले पांच साल में स्थितियां बदली हैं. इसके पांच कारण हैं. शिक्षा (साक्षरता दर ७४.४ प्रतिशत) , प्रति-व्यक्ति आमदनी में भारी वृद्धि , प्रतिदिन औसत व्यक्ति का टीवी चैनलों पर डिस्कशन के प्रति रुझान, ट्विटर या सोशल मीडिया में एक बड़े युवा वर्ग की शिरकत और समाज में तर्क-शक्ति का बढना. लिहाज़ा अब जब कोई पार्टी परम्परागत तरीके से वोट हासिल करने के लिए चुनाव के दो महीने पहले गरीबों की बात करती है या महिलाओं के या जाटों आरक्षण के मुद्दे को हवा देती है तो महिलाएं या जाट कोई खास प्रभावित नहीं होते और उसके अलावा एक बड़ा वर्ग उस पार्टी को स्तरीय ना मानता हुआ नज़रन्दाज़ करने लगता है.
संघ और मोदी के बीच भी यही दिक्कत है. जहाँ मोदी को यह बात मालूम है कि नौ करोड़ से ज्यादा मतदाता इस चुनाव में ऐसा है जो पहली बार वोट देगा. उसकी उम्र १८ से २३ साल है. वह पिछले पांच सालों से ट्विटर पर है, मत बनाता बिगाड़ता है सिस्टम के खिलाफ एक जबरदस्त आक्रोश पाले बैठा है. यह युवा ६६ साल पहले हुई गाँधी की हत्या में नहीं बल्कि दिल्ली में हाल में हुए बलात्कार में दिलचस्पी रखता है. लालू यादव जेल में क्यों नहीं इसमें दिलचस्पी रखता है. नौकरियां कम क्यों हो रही हैं इसमें उसका ध्यान लगा है. लेकिन दूसरी ओर संघ की मजबूरी है कि वह खांटी हिंदुत्व के खांचे से बाहर निकल नहीं पा रहा है. ऐसा करने के लिए उसे अपने अस्तित्व के कारण को हीं पुनर्परिभाषित करना पडेगा.
देश में २४ करोड़ परिवार हैं जिसमें से १६ करोड़ के पास टीवी सेट हैं. हर परिवार में ३.५ मोबाइल हैं. ८२ करोड़ मोबाइल सेट्स में से १६ करोड़ में इन्टरनेट की सुविधा है. टीवी न्यूज़ चैनल दिन-रात खबर दिखाकर उसका बहुपक्षीय जानकारी बढ़ा रहे है. देश की साक्षरता ७४.४ करोड़ है और प्रति-व्यक्ति आमदनी बढ़ी है. ये सारे कारक एक नए भारत को जन्म दे रहे हैं जिसमें जाति की राजनीति याने आरक्षण का झुनझुना नहीं चलेगा.
हमने फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम(एफ.पी.टी.पी यानि जो पहले खंभा छुए वही विजेता या यूं कहें कि जो सबसे ज्यादा वोट पाए वो विजेता) चुनाव पद्धति अपनायी है। जब हम संविधान बना रहे थे तब हमारे सामने कुछ अन्य पद्धतियां भी थीं लेकिन हमने ब्रिटेन के मॉडल को अंगीकार करते हुए इस पद्धति को सर्वश्रेष्ट समझा। नजीज़ा यह हुआ कि चौधरी के कहने पर वोट देने वाला बारम्बार ठगा हुआ किसान हो या प्रजातंत्र की बारीकियां समझने वाला व्यक्ति, दोनों का वोट समान माना गया।
भारतीय समाज में गरीबी, अशिक्षा व सामंतवादी अवशेषों की वजह से इस पूरी अवधारणा को पटरी से उतार दिया गया। एफ.पी.टी.पी पद्धति की जो सबसे बड़ी खराबी अब तक देखने में आयी वह यह कि, यह पद्धति समाज को विभाजित करती है और यह विखण्डन की प्रक्रिया तब तक नहीं रुकती जब तक कि सबसे छोटा पहचान समूह भी विखण्डित नहीं हो जाता।
उदाहरण के तौर पर एक विधानसभा क्षेत्र में मान लीजिए नौ प्रत्याशी हैं जिनमें से आठ को 9000 के आस-पास वोट मिले हैं लेकिन नौवें प्रत्याशी को 9005 हज़ार वोट मिले हैं, नौवां प्रत्याशी विजयी घोषित होगा। हालांकि 88 प्रतिशत मतदाताओं ने उसे खारिज किया है। अगले चुनाव में यह सभी आठों प्रत्याशी इस बात की कोशिश में लग जाएंगे कि किसी तरह से छोटे-छोटे पहचान समूहों की भावनाओं को उभारा जाए और कोशिश की जाए कि किस तरह महज छ: प्रतिशत वोट और बढ़ाए जाएं ताकि अगले चुनाव में जीत हासिल हो।
चूंकि यह पहचान समूह धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रीय, उपजातीय व भावनात्मक आधार पर परंपरागत रूप से ही पहले से बने होते हैं इसलिए राजनीतिक दलों के लिए आसान पड़ता है कि उन्हीं में से किसी एक को अपने साथ जोड़े। एक दूसरी दुश्वारी यह भी है कि नए और तार्किक आधार पर पहचान समूह बनाना मसलन प्रोफेश्नल्स का ग्रुप, विकास के मुद्दों के आधार बनाया गया व्यक्ति समूह एक मशक्कत का कार्य होता है इसलिए राजनीतिक पार्टियां पहले विकल्प को चुनती हैं।
राजनीतिशास्त्र के सर्वमान्य विश्लेषणों के मुताबिक अशिक्षित व अतार्किक समाज में भावनात्मक मुद्दे अचानक ही तेजी से उभरते हैं और कई बार इतने प्रबल हो जाते हैं कि मूल मुद्दों से भारी पड़ते हैं और पूरी विधिमान्य और तार्किक व्यवस्था को या संवैधानिक संस्थाओं को अपने अनुरूप ढ़ालना शुरू कर देते हैं। 1984 में शुरू हुआ राममंदिर का उबाल इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
लेकिन जब समाज में तर्क-शक्ति बढ़ने लगती है तो ये परंपरागत मुद्दे खत्म होने लगते हैं. संभव है कि जाट आरक्षण दे कर कांग्रेस-अजित सिंह गठजोड़ को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ फ़ायदा मिल जाये पर पूरा सन्देश नए तार्किक भारत में कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित होगा क्योंकि यह चालाकी भरा कदम माना जाएगा.
यही कारण था कि जब जब कांग्रेस की सरकार ने शुरूआती दौर में किसी ए राजा का समर्थन किया , किसी कलमाडी को सही ठहराया या किसी बंसल को मंत्रिपद से हटाने में आनाकानी की तो जनता का अविश्वास बढ़ता गया. भ्रष्टाचार किसी मनमोहन या किसी सोनिया गाँधी ने भले ना किया हो पर सन्देश यही गया कि यह कांग्रेस भ्रष्टाचार के खिलाफ तो दूर उसकी हिमायती है. यह एक टैक्टिकल गलती थी.
lokmat
कांग्रेस के शीर्षपुरुष राहुल गाँधी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर गाँधी की हत्या का आरोप लगाना भी उतना हीं बचकाना और स्थितियों को न समझ कर बोलने वाला कृत्य था. अतीत की बातें तब उठायी जाती है जब उन्हें मुद्दा बनाने की क्षमता हो. गाँधी की हत्या आज कोई मुद्दा नहीं रहा और किसने किया यह तो बिलकुल हीं नहीं. फिर भ्रष्टाचार के इतने मुद्दे कांग्रेस सरकार की झोली में जा चुके हैं कि अब वह अपने को गाँधी के नज़दीक तो नहीं हीं बता सकती है. ऐसे में गड़े मुर्दे को उखाड़ना कांग्रेस रणनीतिकारों के मानसिक दिवालियेपन को हीं उजागर कर रहा है. राहुल अगर गुजरात में विकास के सही आंकड़े देकर मोदी को घेरे तो वह ज्यादा उपादेय होगा चुनाव में.
क्यों किसी एक काल खंड में एक राजनीतिक दल या एक अवधारणा जनता का समर्थन पाती है और कभी-कभी यह समर्थन यहाँ तक जनता के मन में बस जाता है कि लोग उसके लिए जान तक की बाज़ी लगाने को तैयार हो जाते हैं? क्यों सारी अनुकूल स्थितियों के बावजूद भारत में साम्यवाद अंगीकार नहीं हुआ और अगर कुछ भाग में हुआ भी तो आज हाशिये पर चला गया? दरअसल, जनता की सामूहिक और व्यक्तिगत समझ तथा राजनीतिक सन्देश या विचारधारा में एक तादात्म्य होना चाहिए. इसके न होने पर कई बार वह सन्देश या अवधारणा जनता की समझ से ऊपर हो जाती है या पैर की नीचे से निकल जाती है. भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के हश्र के पीछे भी यही तर्क है.सम्प्रदाय, जाति, उपजाति या अन्य तमाम पहचान समूह में बंटा भारतीय समाज साम्यवाद के सन्देश को ग्रहण नहीं कर पाया और सर्वहारा क्रांति भारत में दम तोड़ती गयी.
आज से २० साल पहले कोई कांग्रेस या कोई भारतीय जनता पार्टी अगर जाति-आधारित आरक्षण का मुद्दा उठाती तो एक तथाकथित लाभ पाने वाले वर्ग खुश होता, सड़कों पर आता और बाकि सब लोग "कोई नृप होहिं हमे का हानी" के भाव में कुछ कुनमुनाते हुआ चुप हो जाता. लेकिन पिछले पांच साल में स्थितियां बदली हैं. इसके पांच कारण हैं. शिक्षा (साक्षरता दर ७४.४ प्रतिशत) , प्रति-व्यक्ति आमदनी में भारी वृद्धि , प्रतिदिन औसत व्यक्ति का टीवी चैनलों पर डिस्कशन के प्रति रुझान, ट्विटर या सोशल मीडिया में एक बड़े युवा वर्ग की शिरकत और समाज में तर्क-शक्ति का बढना. लिहाज़ा अब जब कोई पार्टी परम्परागत तरीके से वोट हासिल करने के लिए चुनाव के दो महीने पहले गरीबों की बात करती है या महिलाओं के या जाटों आरक्षण के मुद्दे को हवा देती है तो महिलाएं या जाट कोई खास प्रभावित नहीं होते और उसके अलावा एक बड़ा वर्ग उस पार्टी को स्तरीय ना मानता हुआ नज़रन्दाज़ करने लगता है.
संघ और मोदी के बीच भी यही दिक्कत है. जहाँ मोदी को यह बात मालूम है कि नौ करोड़ से ज्यादा मतदाता इस चुनाव में ऐसा है जो पहली बार वोट देगा. उसकी उम्र १८ से २३ साल है. वह पिछले पांच सालों से ट्विटर पर है, मत बनाता बिगाड़ता है सिस्टम के खिलाफ एक जबरदस्त आक्रोश पाले बैठा है. यह युवा ६६ साल पहले हुई गाँधी की हत्या में नहीं बल्कि दिल्ली में हाल में हुए बलात्कार में दिलचस्पी रखता है. लालू यादव जेल में क्यों नहीं इसमें दिलचस्पी रखता है. नौकरियां कम क्यों हो रही हैं इसमें उसका ध्यान लगा है. लेकिन दूसरी ओर संघ की मजबूरी है कि वह खांटी हिंदुत्व के खांचे से बाहर निकल नहीं पा रहा है. ऐसा करने के लिए उसे अपने अस्तित्व के कारण को हीं पुनर्परिभाषित करना पडेगा.
देश में २४ करोड़ परिवार हैं जिसमें से १६ करोड़ के पास टीवी सेट हैं. हर परिवार में ३.५ मोबाइल हैं. ८२ करोड़ मोबाइल सेट्स में से १६ करोड़ में इन्टरनेट की सुविधा है. टीवी न्यूज़ चैनल दिन-रात खबर दिखाकर उसका बहुपक्षीय जानकारी बढ़ा रहे है. देश की साक्षरता ७४.४ करोड़ है और प्रति-व्यक्ति आमदनी बढ़ी है. ये सारे कारक एक नए भारत को जन्म दे रहे हैं जिसमें जाति की राजनीति याने आरक्षण का झुनझुना नहीं चलेगा.
हमने फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम(एफ.पी.टी.पी यानि जो पहले खंभा छुए वही विजेता या यूं कहें कि जो सबसे ज्यादा वोट पाए वो विजेता) चुनाव पद्धति अपनायी है। जब हम संविधान बना रहे थे तब हमारे सामने कुछ अन्य पद्धतियां भी थीं लेकिन हमने ब्रिटेन के मॉडल को अंगीकार करते हुए इस पद्धति को सर्वश्रेष्ट समझा। नजीज़ा यह हुआ कि चौधरी के कहने पर वोट देने वाला बारम्बार ठगा हुआ किसान हो या प्रजातंत्र की बारीकियां समझने वाला व्यक्ति, दोनों का वोट समान माना गया।
भारतीय समाज में गरीबी, अशिक्षा व सामंतवादी अवशेषों की वजह से इस पूरी अवधारणा को पटरी से उतार दिया गया। एफ.पी.टी.पी पद्धति की जो सबसे बड़ी खराबी अब तक देखने में आयी वह यह कि, यह पद्धति समाज को विभाजित करती है और यह विखण्डन की प्रक्रिया तब तक नहीं रुकती जब तक कि सबसे छोटा पहचान समूह भी विखण्डित नहीं हो जाता।
उदाहरण के तौर पर एक विधानसभा क्षेत्र में मान लीजिए नौ प्रत्याशी हैं जिनमें से आठ को 9000 के आस-पास वोट मिले हैं लेकिन नौवें प्रत्याशी को 9005 हज़ार वोट मिले हैं, नौवां प्रत्याशी विजयी घोषित होगा। हालांकि 88 प्रतिशत मतदाताओं ने उसे खारिज किया है। अगले चुनाव में यह सभी आठों प्रत्याशी इस बात की कोशिश में लग जाएंगे कि किसी तरह से छोटे-छोटे पहचान समूहों की भावनाओं को उभारा जाए और कोशिश की जाए कि किस तरह महज छ: प्रतिशत वोट और बढ़ाए जाएं ताकि अगले चुनाव में जीत हासिल हो।
चूंकि यह पहचान समूह धार्मिक, जातिगत, क्षेत्रीय, उपजातीय व भावनात्मक आधार पर परंपरागत रूप से ही पहले से बने होते हैं इसलिए राजनीतिक दलों के लिए आसान पड़ता है कि उन्हीं में से किसी एक को अपने साथ जोड़े। एक दूसरी दुश्वारी यह भी है कि नए और तार्किक आधार पर पहचान समूह बनाना मसलन प्रोफेश्नल्स का ग्रुप, विकास के मुद्दों के आधार बनाया गया व्यक्ति समूह एक मशक्कत का कार्य होता है इसलिए राजनीतिक पार्टियां पहले विकल्प को चुनती हैं।
राजनीतिशास्त्र के सर्वमान्य विश्लेषणों के मुताबिक अशिक्षित व अतार्किक समाज में भावनात्मक मुद्दे अचानक ही तेजी से उभरते हैं और कई बार इतने प्रबल हो जाते हैं कि मूल मुद्दों से भारी पड़ते हैं और पूरी विधिमान्य और तार्किक व्यवस्था को या संवैधानिक संस्थाओं को अपने अनुरूप ढ़ालना शुरू कर देते हैं। 1984 में शुरू हुआ राममंदिर का उबाल इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए।
लेकिन जब समाज में तर्क-शक्ति बढ़ने लगती है तो ये परंपरागत मुद्दे खत्म होने लगते हैं. संभव है कि जाट आरक्षण दे कर कांग्रेस-अजित सिंह गठजोड़ को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ फ़ायदा मिल जाये पर पूरा सन्देश नए तार्किक भारत में कांग्रेस के लिए नुकसानदेह साबित होगा क्योंकि यह चालाकी भरा कदम माना जाएगा.
यही कारण था कि जब जब कांग्रेस की सरकार ने शुरूआती दौर में किसी ए राजा का समर्थन किया , किसी कलमाडी को सही ठहराया या किसी बंसल को मंत्रिपद से हटाने में आनाकानी की तो जनता का अविश्वास बढ़ता गया. भ्रष्टाचार किसी मनमोहन या किसी सोनिया गाँधी ने भले ना किया हो पर सन्देश यही गया कि यह कांग्रेस भ्रष्टाचार के खिलाफ तो दूर उसकी हिमायती है. यह एक टैक्टिकल गलती थी.
lokmat
No comments:
Post a Comment