आइंस्टीन ने कहा था “दुनिया की महत्वपूर्ण समस्याओं का समाधान सोच के उसी स्तर पर रहते हुए नहीं हो सकता जिस सोच के स्तर पर हमने उन्हें पैदा किया था”. हम अनैतिक हैं (यह सोच का स्तर है) लिहाज़ा भ्रष्ट है. लिहाज़ा सोच के उसी स्तर पर आ कर एक कानून बनाते हैं. फिर जब यह कानून फेल होता है तो एक और कानून बनाते हैं और जब वह भी काम नहीं करता तो एक सतर्कता आयोग बनाते हैं. जब उससे भी समस्या हल नहीं होती तो लोकपाल बनाने की बात करते हैं. इस तरह हमने दुनिया में तीन करोड़ ३० लाख कानून बना दिए पर समस्या वहीं की वहीं रही और हम चोर-सिपाही खेलते रहे.
सोच का समान स्तर होने की वज़ह से पार्लियामेंट कानून बनता है, सर्वोच्च न्यायलय उसे ख़ारिज करता है फिर पार्लियामेंट के लोग सर्वोच्च न्यायलय को “लक्ष्मण रेखा” न लांघने की सलाह देते हैं. इस पर सर्वोच्च न्यायलय को कहना पड़ता है कि अगर सीता ने लक्ष्मण रेखा न लांघी होती तो रावण का वध ना होता. हम केन्द्रीय सतर्कता आयोग लाते हैं, केन्द्रीय सूचना आयोग पैदा करते हैं. फिर जब सूचना आयोग कुछ कहता है तो सब राजनीतिक दल मिलकर उसके आदेश के खिलाफ कानून हीं बना डालते हैं. यही दुर्गति सर्वोच्च न्यायलय के फैसले की भी की जाती है.
आजकल केंद्र सरकार को अपने संयुक्त-सचिव और ऊपर के स्तर के अधिकारियों जिनमें मंत्री और प्रधानमंत्री तक हैं, बड़ा प्यार आ रहा है. उसकी सुरक्षा के लिए सरकार इतनी कटिबद्ध है कि सर्वोच्च न्यायलय को भी ठेंगा दिखा रही है. दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टाब्लिश्मेंट कानून के सेक्शन ६-(अ)इन अधिकारियों के खिलाफ किसी भी जांच के लिए सरकार बहादुर की इजाज़त लेने की बात कही गयी है. लेकिन जिस तरह सरकार कोयला घोटाले की सी बी आई जाँच को प्रभावित कर रही थी, सर्वोच्च न्यायलय ने इसे (जांच के निगरानी) अपने हाथ में ले ली. लेकिन सरकार अभी भी यही रट लगाये हुए है कि सुप्रीम कोर्ट से क्या हुए, इस क़ानून के तहत जांच अधिकारी को इज़ाज़त लेनी हीं पड़ेगी. ठीक इसके विपरीत एक उत्तर प्रदेश का शासन एक युवा आई ए एस अधिकारी को नियमों की धज्जी उड़ाते हुए बकौल एक सत्ताधारी दल के लोकल नेता के उसी की शिकायत पर “मात्र ४० मिनट में” निलंबित कर देता है. अगर यही तत्परता इस सरकार ने लाखों करोड़ रुपये के खाद्यान घोटाले में किया होता तो उत्तर प्रदेश मानव सूचकांक में इतना पीछे ना होता. अब ज़रा तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये. केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अनुसार करोड़ों रूपये के एन आर एच एम् (राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना ) तथा एम्मार –एमजीएफ (हैदराबाद) घोटालों के २० मामलों में फंसे ३६ भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ अपनी हीं सी बी आई को जाँच की मंज़ूरी सरकार नहीं दे रही है. हालांकि ऐसे मामलों में सर्वोच्च न्यायलय के स्पष्ट आदेश हैं कि चार माह में या तो मंजूरी देनी होगी या लिखित रूप से बताना होगा कि मंजूरी ना देने का पीछे कारण क्या हैं. इसका सीधा मतलब, सी बी आई बेकार, सुप्रीम कोर्ट बेकार, सी वी सी (केंद्रीय सतर्कता आयोग) बेकार. तो फिर इन्हें अस्तित्व में लाया हीं क्यों गया था?
दरअसल हमने कभी भी समस्या के जड़ में जाने की कोशिश हीं नहीं की. यह भी डर था कि जड़ में जाने से अपना अस्तित्व खतरे में पड़ता नज़र आने लगा. हर समाज में प्रतिमान बनाये जाते हैं. उन्हीं प्रतिमानों को लेकर समाज में चरित्र –निर्माण होता है. हमारे प्रतिमान बदल दिए गए हैं. राणाप्रताप, असफाक उल्लाह खान, आजाद, गांधी से हट कर कोई फिल्म का हीरो जो नशे में तेज़ रफ़्तार गाड़ी से कई लोगों को कुचल देता है हमारा प्रतिमान बन जाता है. सी बी एस सी में टॉप करने वाला गरीब घर का छात्र हमारे नौनिहालों का प्रतिमान नहीं बनाता बल्कि डांस इंडिया डांस का बालक हमारे बच्चों का प्रतिमान बन जाता है. बाप की हिम्मत नहीं कि अपने बेटे से कहे “बेटा, शाम को पढ़ा करो, पढने से व्यक्ति अच्छा और चरित्रवान बनता है और उसका भविष्य बनता है”. डर है कि बेटा पलट कर यह ना कह दे “डैड, किस दुनिया में रहते हैं , यहाँ तो कमर माइकेल जैक्सन की तरह हिलाने से तरक्की होती है आप अभी भी ऐकिक नियम और गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से ऊपर नहीं बढ़ पा रहे हैं”. यहाँ तक कि बाप-बेटे के रिश्तों के नियमन के लिए भी हमने कानून बना दिया है.
यही वजह है कि प्रजातंत्र के मंदिर संसद की लोक सभा में लगभग हर तीसरा व्यक्ति किसी ना किसी तरह के अपराध के आरोप में फंसा है. किसे चुने जनता, कहाँ से लाये गाँधी और आजाद. जो व्यक्ति एक समुदाय विशेष के वोट की लालच में एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी को निलंबित करा देता हो वह जब चुन कर संसद में जायेगा तो उससे हम क्यों अपेक्षा करते है कि वह “सत्य और नैतिकता “ का प्रतिमान होगा?
आजादी के करीब ३६ साल बाद सत्ताधारियों को अहसास हुआ कि गाँधी सही थे और संविधान बनाने वाले गलत. नतीज़तन सन १९९३ में पंचायत राज एक्ट ७३वें संविधान संशोधन के ज़रिये लाया गया. इस कानून के बाद से देश में नीचे से संस्थाओं का पनपना शुरू हुआ. एक आंकलन के अनुसार आज देश में ३३ लाख ऐसे पद हैं जिन पर चुनाव होता है. हर पद के लिए कम से कम तीन व्यक्ति सीधे तौर पर होड़ में होता है यानी लगभग एक करोड़ लोग चुनाव में सीधे शरीक होते है. देशी में कुल २४ करोड़ परिवार हैं. इसका मतलब हर २४ परिवार का कम से कम एक आदमी लोकतान्त्रिक चुनावी प्रक्रिया से जुड़ा है.
अगर अगर लोकतंत्र की फैक्ट्री में हर २४ परिवार का एक व्यक्ति नैतिक हो तो शीर्ष संस्थाओं जैसे संसद में भी अच्छे लोग जाये लेकिन अगर समाज में हीं नैतिक शिक्षा का अभाव रहेगा तो नगर पालिका के सभासद से लेकर मंत्री तक वही लोग होंगे क्योंकि जनता के पास विकल्प हीं नहीं होगा किसी गांधीवादी को चुनने का. प्रश्न यह है कि यह व्यक्ति कैसा है नैतिकता, ज्ञान, समाज के प्रति दृष्टिकोण या सोच को लेकर. अगर यह भी राजा, कलमाड़ी, राघव जी, कांडा, कुशवाहा, या तमाम तथाकथित बड़े राजनेताओं जिन पर भ्रष्टाचार के मुकदमें चल रहे हैं के नक़्शे कदम पर चलता है तो प्रजातंत्र का भविष्य जानने के लिए मेहनत करने की ज़रुरत नहीं होगी.
पूर्व अमरीकी उप-राष्ट्रपति तथा पर्यावरण ह्रास के खिलाफ अभियान चलाने वाले नोबेल पुरस्कार विजेता अल गोर ने अपनी किताब “जलवायु संकट को सुलझानेकी योजना” में लिखा ”कुछ वर्ष बाद नयी पीढी दो में एक सवाल पूछेगी ---- आप क्या सोच रहे थे? क्या आपने अपनी आँखों के सामने नार्थ पोलर आइस कैप को पिघलते नहीं देखा? क्या आपको इस खतरे की परवाह नहीं थी? या वह यह पूछेगी –आपके पास एक असंभव माने जाने वाले संकट को सुलझाने के लिए खड़े होने का नैतिक साहस कहाँ से आया?” आज भारत के लोगों को नैतिक साहस (अगर है) जुटा कर पूछना पडेगा “कौन हैं सत्ता में बैठे ये लोग जो कानून बनाते है, संस्थाएं सृजित करते हैं फिर उन्हीं के खिलाफ खड़े हो जाते हैं?” क्या हम समाज में नैतिकता का एक नया वातावरण तैयार नहीं कर सकते ताकि कोई२-जी, सी डब्लू जी , कोयला घोटाला सोचा भी ना जा सके.
jagran
A mind blowing analysis of the crisis we are facing.Author has expressed his mind without any reservations. We have to wait for long time to read such articles that cover the subject in depth.
ReplyDeleteबहुत अच्छा विश्लेषण किया है हमारे न्याय - न्यायप्रणाली - न्यायदाता तथा न्याय निर्माता का . हमारे भोजपुरी भाषा में एक शब्द है " बेहाया ".चाहे जो हो जाये हम तो अपने मर्जी से ही करेगे . आपके यह शोधपरक लेख पड़ने के बाद तो यही लगता है की मौजूदा राजनितिक बिरादरी बेहया हो गयी है, उसे अब शर्म नहीं आती . वह ४१ मिनट के निलंबन को भी जायज ठहरा रही है .
ReplyDelete