Tuesday, 20 August 2013

प्रश्न पत्रकारिता में नैतिकता का है ज्ञान का नहीं ?


संघ लोक सेवा की सिविल परीक्षा और आई आई टी के इंजीनियरिंग की परीक्षा देश की सबसे कठिन मानी जाती है. लेकिन अपने बैच का एक टॉपर आई ए एस अधिकारी और कई आई आई टी पास इंजिनियर भ्रष्टाचार के मामले में फंसे पाए गए. क्रिपस मिशन की असफलता के पॉइंट्स या चीन का सकल घरेलू उत्पाद रट लेना या रोटेशनल मैकेनिक्स के सवाल कर लेना यह सुनिश्चित नहीं करता कि व्यक्ति नैतिक भी होगा. अगर ऐसा होता तो देश की अफसरशाही आज भ्रष्टाचार और रीढ़-विहीनता का प्रतिमूर्ति ना बनी होती और एक रुपये में ८७ पैसे (नए आंकलन के अनुसार) नेता-अफसर अनैतिक गठजोड़ की भेंट न चढ़ रहे होते. बल्कि भ्रष्टाचार में सजा की गिरती दर यह साबित करती है इनके तथाकथित ज्ञान का नुकसान यह हुआ है कि इन्होने भष्टाचार के ऐसे तरीके खोज लिए हैं जिससे ये और सत्ताधारी नेता कानून की जद से निकल जाएँ. “   

केन्द्र के एक मंत्री  की सलाह है कि वकीलों की तरह मीडिया के लिए भी एक उद्योग की हीं बॉडी हो जो उनका इम्तिहान ले और तब उन्हें खबरें लिखने (पत्रकारिता करने) का लाइसेंस दे (या सरकार से दिलाये?). यह सलाह इस बात पर आधारित है कि मीडिया में पत्रकारिता की शिक्षा का मानकीकरण नहीं हो रहा है और रोज़गार के अभाव में युवाओं को लुभाने कर पैसा कमाने के लिए कुकुरमुत्ते की तरह मास कॉम इंस्टिट्यूट खुले हैं जिनमें घटिया स्तर की मीडिया शिक्षा दी जा रही है, नतीज़तन पत्रकारिता की गुणवत्ता गिर रही है.

कुछ ऐसी हीं नीति प्रेस कौंसिल ने बनायीं है. सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज का (चूंकि उनकी राय व्यक्तिगत है इसलिए उनका वर्तमान ओहदा नहीं दिया जा रहा है) मानना है कि ९० प्रतिशत भारतीय जाहिल हैं. अगर इस तर्क -वाक्य का विस्तार किया जाये (जो तर्क-शास्त्र में एक मान्य प्रक्रिया है) तो भारत में बमुश्किल-तमाम केवल १० प्रतिशत हीं “जाहिल नहीं” हैं. इस शास्त्र के   “आल एस इज नॉट पी”  के सिद्धांत के मुताबिक ज़रूरी नहीं कि जो जाहिल नहीं वो जहीन. बीच का भी हो सकता है. इसका मतलब यह कि इन १० प्रतिशत गैर-जाहिल में से कुछ आई आई टी में तो कुछ डाक्टरी में, कुछ न्यायपालिका में और कुछ अफसरी में और एक बड़ा भाग राजनीति में (जिनमें ३१ प्रतिशत लोक सभा के वो माननीय भी शामिल हैं जिन पर अपराध के मुक़दमे हैं) चले जाते होंगे. बचे हुए में एक-आध प्रतिशत अन्य पेशों को अंगीकार करता होगा. अब इतने की बाद पत्रकारिता में कोई आसमान से लोग टपक तो नहीं पड़ेंगें. लिहाज़ा लब्बो-लुआब यह कि पत्रकार जाहिल होते हैं एक-आध जैसे पी साईनाथ (अभी तक उनकी साख बची हुई है) को छोड़ कर. इसलिए मंत्री जी की और न्यायमूर्ति की चिंता वाजिब लगती है.       

पर प्रॉब्लम है कहाँ पत्रकार के अशिक्षित होने की या इस बात की  कि देश का पत्रकार लेक्मे फैशन शो तो कवर करता है देश के किसानों की समस्या नहीं. मीडिया में गिरावट को सुधारने के पक्ष में खड़े इन दोनों उपरोक्त लोगों का मानना है (और हमारा भी) कि ग्रामीण भारत इस २४X७ के कवरेज से बाहर है. हम भी न्यायमूर्ति की इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि मीडिया की समस्या नैतिकता की है वैसे हीं जैसे अन्य संस्थाओं में है. क्या इसके लिए यह जानना जरूरी है कि ब्राज़ील का “बोलसा फेमिलिया” स्कीम क्या है ? क्या यह जानता जरूरी है कि पहला बम नागासाकी में गिरा कि हिरोशिमा में या टोडरमल का भू-राजस्व सिस्टम अच्छा था या ब्रितानी हुकूमत का? क्या यह भी जानना ज़रूरी है कि जब लार्ड क्लाइव ने भारत को ज्यादा लूटा तो ब्रितानी संसद में हेस्टिंग्स पर महाभियोग क्यों लगा?

क्या पत्रकारिता में जनोपादेयता के ह्रास को रोकने के लिए उसे यह भी जानना ज़रूरी है कि संविधान के अनुच्छेद १९(१)(अ) में प्रदत्त अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य और १९ (१) (छ) में प्रदत्त व्यापर स्वातंत्र्य में मूल अंतर क्या है ताकि कोई सत्ता में बैठा मंत्री या कानूनी पदों पर बैठे उनके लोग धीरे से पत्रकारिता को पेशा बता कर इसे चालाकी से १९(१)(अ) से हटाने और १९(१)(छ) में लाने की कोशिश करें. ध्यान रखे कि सत्ता पर बैठे लोगों को इससे यह लाभ मिलेगा कि १९(१)(अ) के प्रतिबंधों में जिनका जिक्र (१९ (२) में है राज्य को जनहित तय करने का अधिकार नहीं है लेकिन जैसे हीं पत्रकारिता पेशे में आ जाएगा यानि १९(१)(छ) में तन राज्य को १९ (६) में यह अधिकार मिल जाएगा कि वह जनहित में फैसला कर सके. मीडिया की आज़ादी की वह आखिरी दिन होगा.

वकीलों के परीक्षा के जिस मॉडल की बात हो रही है वह २०१० में लागू हुआ था.और आज भी बार कौंसिल ऑफ़ इंडिया की वह परीक्षा कानून के सामान्य –ज्ञान पर आधारित है जिसमें ८५ प्रतिशत लॉ ग्रेजुएट पास हो जाते हैं. क्या इससे वकालत के पेशे में चार-चंद लग गए हैं? फिर प्रोफेशन और मीडिया में एक आधारभूत अंतर है. यही वजह है कि संविधान निर्माताओं ने दोनों को मौलिक आजादी के १९ (१) में तो रखा लेकिन दोनों को अलग –अलग उप-बंध में. साथ हीं अमरीका का उदाहरण सामने होते हुए भी उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में मीडिया या प्रेस (उस समय प्रेस हें था) शब्द शामिल नहीं किया. प्रेस की आज़ादी उसी नागरिकों की आज़ादी से निसर्ग होती है अलग से नहीं. मतलब यह कि किसी अन्ना हजारे का जंतर-मंतर से भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना या किसी अर्नब गोस्वामी का स्टूडियो में भारतीय शासक वर्ग को “कंट्री वांट्स टू नो टुनाइट” कह कर चुनौती देना या किसी रविश का व्यंग्यात्मक  मुस्कुराहट के साथ सत्ता पर घातक  सवाल उठाना एक हीं संवैधानिक अधिकार की उपज हैं और वह है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता.

अन्ना किसी भ्रष्ट आई ए एस अधिकारी या हिंदी से ज्यादा अंग्रेजी जानने वाले मंत्री के सामने ज्ञान (जिस मंत्री ज्ञान समझ रहे हैं) में एक क्षण भी नहीं टिक सकते. जयप्रकाश नारायण ने भी कोई प्रोफेशनल परीक्षा नहीं दी थी. गाँधी –नेहरु के ज़माने में भी बार कौंसिल की परीक्षा की व्यवस्था नहीं थी. आज पत्रकारिता में नैतिकता की समस्या है न कि ज्ञान की. अगर एक तथाकथित अज्ञानी पत्रकार नैतिकता के मानदंडों पर तन कर खड़ा हो जाता है तो वह किसी भी ज्ञानी एडिटर से लाख गुना अच्छा है, अगर कोई एडिटर मालिक को खबरों से समझौता ना करने का सन्देश देता है तो वह पत्रकारिता का आभूषण है और अगर कोई मालिक विज्ञापन के लिए या किसी मंत्री के कहने पर खबरों से समझौता ना करने के लिए किसी हद तक घाटा सहने को तैयार है तो वह पत्रकारिता का अन्ना हजारे है. और ऐसा बनने के लिए किसी मीडिया कौंसिल की नीम-परीक्षा पास करने की ज़रुरत नहीं है. यह आत्म-बल और शुचिता से आता है.   
dainik bhaskar

1 comment:

  1. Intelligence and Intellect are not synonymous. Routine examinations may decide on intellect but intelligence is not possible to be assessed by them.It reflects like light of Sun.We don't need torch to find Sun. It is self illuminated. Gita says " Budhyo partastu sah". It is above intellect.Sir CY Chintamani, M C and Paradkar ji didn't have higher degrees or qualifications but they have enjoyed respect of people from their writings.We shouldn't depend on institutes or degrees to get icons in any field. They emerge with scene and disappear on their own.

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