Tuesday, 13 August 2013

पाकिस्तान को लेकर क्या मीडिया उन्माद पैदा करता है ?



मीडिया पर आरोप लगना इस बात का प्रमाण है कि प्रजातंत्र में इसकी भूमिका बढ़ रही है. आम जनता का शिक्षा स्तर, आर्थिक मजबूती और तार्किक शक्ति बढ़ने पर डिलीवरी करने वाली संस्थाओं से, वे औपचारिक हो या अनौपचारिक, अपेक्षाएं भी बढ़ती हैं. ऐसे में लाज़मी है कि जब संस्थाएं जन-अपेक्षाओं पर उतनी खरी नहीं उतरतीं तो आरोप लगते हैं. जो ताज़ा आरोप मीडिया पर लग रहें हैं उनमें प्रमुख है भारत-पाकिस्तान सीमा पर हुई ताज़ा घटनाओं पर न्यूज़ चैनलों में होने वाले स्टूडियो डिस्कशन को लेकर. यह माना जा रहा है कि मीडिया पाकिस्तान को लेकर जनाक्रोश को हवा दे रही है और देश को युद्ध के कगार पर धकेल रही है याने यह भाव पैदा कर रही है कि जो इस आक्रोश में शामिल नहीं वह राष्ट्रीयता के खिलाफ है.

भारत की मीडिया पर आरोप पहले भी लगते रहे हैं और हकीकत यह है कि मीडिया इन आरोपों का संज्ञान भी लेती रही है भले हीं इसका प्रचार वह ना करती हो. मीडिया में एक सुधारात्मक प्रक्रिया बगैर किसी शोर –शराबे के चल रही है. यही वजह है कि आज से चार साल पहले जो न्यूज चैनल शाम को भी प्राइम टाइम में ज्योतिषी , भूत-भभूत और भौडे मनोरंजन के कार्यक्रम परोश रहे थे आज जन-मुद्दों को उठा रहे हैं , उनपर डिस्कशन करा रहे है. उनका यह हौसला तब और बढ़ने लगा जब  दर्शकों के एक वर्ग ने मनोरंजन के भौंडे कार्यक्रमों से हट कर इन स्टूडियो चर्चा को देखना शुरू किया. दरअसल इस परिवर्तन के लिए दर्शक स्वयं बधाई के पात्र हैं.

ऐसे में मीडिया की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने बेहद जनोपादेय स्टूडियो डिस्कशन को गुणात्मक तौर पर बेह्तार करे. प्रजातंत्र में इन चर्चाओं के जरिये मीडिया जन चेतना को बेहतर करती है लोगों की पक्ष-विपक्ष के तर्कों को सुन कर फैसले लेने की क्षमता बढाती है और जन-धरातल में मूल-मुद्दों पर भावना-शून्य पर बुद्धिमत्तापूर्ण संवाद का मार्ग प्रशस्त करती है. प्रजातंत्र में शायद मीडिया की ऐसी  भूमिका पहले देखने को नहीं मिलती थी.

लेकिन एक डर जरूर इन आरोपों को निरपेक्ष भाव से देखने पर मिलता है. कहीं मीडिया इन मुद्दों पर परस्पर विरोधी तथ्यों को देने के नाम परस्पर-विरोधी राजनीतिक दलों के लोगों को बैठा कर खाली “तेरे नेता, मेरा नेता, तेरा शासन मेरा शासन “ का तमाशा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री तो नहीं मान ले रही है? अगर ऐसा है तो जो दर्शक मनोरंजन का भौंडा मजाक छोड़ कर न्यूज़ चैनलों को तरफ मुड़े है वे जल्द हीं मानने लगेंगे कि अगर यही देखना है तो “द्व्यार्थक भौंडे मजाक में क्या बुराई है”. लिहाज़ा मीडिया में स्टूडियो डिस्कशन को लेकर खासकर इसके फार्मेट को लेकर एक बार गहन विचार की ज़रुरत है. शालीन, तर्क-सम्मत, तथ्यों से परिपूर्ण चर्चा किसी शकील-लेखी झांव-झांव से बेहतर होगी. फिर यह भी सोचना होगा  कि क्या जिन राजनीतिक लोगों को इन चर्चाओं में बुलाया जाता है वे स्वयं अपनी पार्टी की नीति और तथ्यों से पूरी तरह वाकिफ होते भी हैं या वे केवल लीडर –वंदना कर अपने नेता की नज़रों में अपना नंबर बढाने आते हैं.

दूसरा क्या जिन विषयों का चुनाव किया जाता है वे उस दिन के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे होते हैं. क्या यह सच नहीं कि गरीबी , अभाव, अशिक्षा और राज्य अभिकरणों के शाश्वत उनींदेपन को लेकर ग्रामीण भारत की समस्याएँ इन चर्चाओं का मुख्य मुद्दा बनाने चाहिए? मोदी ने क्या कहा, मुलायम कब पलट गए सरीखे मुद्दों से ज्यादा ज़रूरी है कि सत्ता पक्ष को यह बताया जाये कि देश में शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति इतनी दयनीय क्यों है और क्यों जहाँ विश्व में धनाढ्य लोगों की लिस्ट में भारत के लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है वहीं गरीबी –अमीरी की खाई भी.     

लेकिन इसका यह मतलब यह नहीं कि मीडिया की वर्तमान भूमिका को सराहा न जाये. क्या यह सच नहीं है कि अन्ना आन्दोलन पर मीडिया की भूमिका सामूहिक जन-चेतना में गुणात्मक परिवर्तन लाने के लिए अप्रतिम रही? क्या यह सच नहीं कि शीर्ष पर बैठे सत्ता पक्ष के भ्रष्टाचार के मामलों को उजागर करने में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण रही? क्या बलात्कार को लेकर सरकार के उनीदेपन से झकझोरने में मीडिया की भूमिका नज़रअंदाज की जा सकती है?  

लेकिन तब आरोप लगता है कि मीडिया “कैंपेन पत्रकारिता” कर रही है जिसका मतलब वह “बायस्ड” है. दरअसल आरोप लगने वाले यह भूल जा रहे हैं कि एक ऐसी शासन व्यवस्था, जो जन-संवादों को ख़ारिज करने का स्थाई भाव रखती हो, को जगाने में शुरूआती दौर में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है.

सीमा-पार से हुई हाल की घटनाओं को लें. यह बात सही है कि पडोसी देश को लेकर भारत में एक अलग संवेदना है. इसके पीछे १९४७ से लेकर आज तक के अनचाहे युद्ध का इतिहास रहा है. क्या यह सच नहीं है कि १९८० से लेकर आज तक पाकिस्तान छद्म लेकिन निम्न तीव्रता (लो इंटेंसिटी ) का युद्ध करता रहा है और पाकिस्तान इंटेलिजेंस एजेंसी -- आई एस आई --भारत में आतंकी घटनाओं का जिम्मेदार आज भी है? स्वयं इस एजेंसी के मुखिया जावेद अशरफ काजी ने पाकिस्तान के सीनेट में सन २००३ में कबूला कि कश्मीर में हीं नहीं भारत में के पार्लियामेंट पर हमले में, विदेशी पत्रकार डेनियल पर्ल की हत्या में और मुशर्रफ पर हमले में जैस और जमात का हाथ रहा है. इसका उल्लेख स्वयं पाकिस्तान के लेखक अहमद रशीद ने अपनी किताब “पाकिस्तान, पतन के कगार पर” में बे लाग-लपेट किया है.

पाकिस्तान को लेकर हाल में चैनलों में हुई चर्चाओं को लेकर कहा गया कि मीडिया स्वयं “युद्ध की भाषा” बोलने लगा. दरअसल यह आरोप इसलिए लगा कि कुछ एंकर तटस्थता का भाव न रख कर स्वयं एक पक्ष के वकील होते दिखे. शायद मीडिया से अपेक्षा यह रहती है कि एंकर किसी पक्ष का नहीं होता बल्कि वार्ता को आगे बढाने की हीं भूमिका में होता है, बगैर अपना संयम और धैर्य खोते हुए. लेकिन ध्यान रखे कि हाल हीं में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कई बार सत्य उजागर कराने के लिए भी जज उग्र भाव या ऐसे आक्षेप एक या दूसरे पक्ष पर मौखिक रूप से लगाते हैं. इसका मतलब यह नहीं होता कि वे फैसला दे रहे हैं. फिर यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन चर्चाओं में सभी पक्ष के लोगों का समावेश होता है. लिहाज़ा दर्शकों को हर पक्ष का तर्क परोस दिया जाता है. फैसला उन पर छोड़ दिया जाता है.
अगर सीमा पर हुई गोलीबारी में भारत के पांच सैनिक मारे जाते है और फिर भी देश के प्रतिरक्षा मंत्री संसद में अपने बयान में सेना के औपचारिक बयान को बदल कर “पाकिस्तानी सैनिकों की वर्दी पहने” के भाव में रहते हैं तो मीडिया को कुछ “एक्स्ट्रा मील” चलना पड़ता है शासक वर्ग को सचेत करने और जन-भावना से अवगत करने के लिए. इसका मतलब यह नहीं होता कि मीडिया युद्ध कराने में दिलचस्पी रखता है. यह इसलिए होता है कि अन्ना-आन्दोलन को लेकर सरकार शुरू में “जंतर –मंतर पर ऐसे आन्दोलन तो रोज हीं होते हैं” के भाव में रही या दिसम्बर १६ के बलात्कार को लेकर पहले दिन  “डिनायल मोड” में रही. यह मीडिया का दबाव या “कारपेट कवरेज” था जिसने सरकार को रवैया बदलने को मजबूर किया.    

bhaskar     

1 comment:

  1. There are some anchors in media who never allow standards of discussions go down in studio. They pull down the spoke persons from political parties who try to score points in the eyes of bosses. We are thankful to media for the mass awakening on various issues of public life.Good job keep it up.

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