गंभीर स्थितियों के कवरेज को लेकर बी ई ए की ५-सदस्यीय समिति
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अपनी मशहूर पुस्तक “पावर्टी एंड फेमिंस” (गरीबी और दुर्भिक्ष) में विश्व के प्रख्यात
अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने लिखा था “क्रियाशील
प्रजातंत्र में दुर्भिक्ष (अनाज ना मिलने से होने वाली भूखमरी) नहीं हो सकता”। उनका मानना था कि क्रियाशील प्रजातंत्र में मीडिया सक्रिय भूमिका निभाती है।
ऐसे में मीडिया की रिपोर्टिंग से पैदा हुए जनमत का दबाव इतना अधिक होता है कि
तत्कालीन सरकार मजबूर हो जाती है, अनाज को तत्काल किसी भी तरह से संकट में आये
क्षेत्र में पहुंचाने के लिए, भले हीं उसके लिए
उसे कुछ भी उपक्रम करना पड़े। सेन का मानना
था कि सन १९४२ में आये बंगाल दुर्भिक्ष में करीब २० लाख लोग मौत के मुंह में समा
गए, यह अँगरेज़ सरकार की गलत नीति और जनता के प्रति
उदासीनता की वजह से हुआ। सेन ने यह सिद्ध किया कि उस समय भी सरकार के गोदामों में
काफी अनाज था जो कि बंगाल के गांवों में भेजा जा सकता था।
उत्तराखंड में आये प्रलय का कारण सीधे तौर पर दिखने वाली प्राकृतिक आपदा हो या
परोक्ष रूप से मानव की अदूरदर्शिता- या लोलुपता-जनित कुप्रभाव, एक बात साफ़ है कि
शुरू के दो दिन तक सरकार वह तत्परता नहीं
दिखा पायी जो बाद के दिनों में देखने में आया। यह भी उतना हीं सत्य है कि मीडिया,
खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने जिस तरह से दिन रात इस विभीषिका को दिखाया उससे ना
केवल राज्य सरकार बल्कि दिल्ली में बैठे शासक भी चौंक गए। पूरे भारत में इसे लेकर
एक बेचैनी सी पैदा हुई। यही होती है मीडिया की भूमिका, शायद इस पैरामीटर पर मीडिया
पूरी तरह खरा उतरा।
लेकिन कवरेज को लेकर कुछ मद्दे जरूर उठे। खासकर इस बात को लेकर कि इतने गंभीर
मुद्दे पर भी मीडिया की सेंसिटिविटी कहीं स्तरीय नहीं थी। हर चैनल यह कहता पाया
गया कि सबसे पहले उसने केदारनाथ की तस्वीर दिखाई या रिपोर्टर इस की कवरेज में
शब्दों के चयन में उतने सतर्क नहीं थे जितना अपेक्षित था।
एक आम शिकायत यह थी कि शुरू में हेलीकॉप्टरों से कुछ रिपोर्टर और कैमरामैन
अपने चैनलों के प्रभाव का इस्तेमाल करके आपदाग्रस्त दुर्गम इलाकों में पहुंचे जब
कि उन हेलीकॉप्टरों का इस्तेमाल इमदाद पहुंचाने में होना चाहिए था। दरअसल
परम्परागत रिपोर्टिंग में जगह पर पहुंचना इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए पहली शर्त
होती रही है, लिहाज़ा रिपोर्टिंग टीम हर संभव प्रयास करती है स्पॉट पर पहुँचने के लिए।
इन रिपोर्टरों में अधिकांश उन हेलीकॉप्टरों से गए जिन पर नेता तथाकथित स्थिति
का जायजा लेने के लिए उड़ान भर रहे थे। चूंकि ना तो नेता को स्थिति की भयावहता
मालूम थी ना हीं रिपोर्टरों को लिहाज़ा शुरू के दौर में यह क्षम्य हो सकता है
क्योंकि वस्तुस्थिति से दुनिया को वाकिफ करना मीडिया का पहला कर्तव्य था। लेकिन
बाद में जब यह स्पष्ट हो गया कि सबसे बड़ी
ज़रुरत पीड़ितों की जान बचाना था, उसके बाद होड़ में आये मीडिया का इस बात पर जोर
देना कि कुछ चैनल अगर दुर्गम स्थानों पर पहुंचाए गए हैं तो “हम क्यों नहीं” यह इसी मानसिकता का
परिचायक था जिसके तहत चैनल यह भी कह रहे थे कि “हम सबसे पहले तस्वीरें दिखा रहे हैं” । होड़ जब सार्थक ना होकर गैरजिम्मेदाराना होने लगती है तब अच्छे
प्रयास भी बेमानी हो जाते हैं।
एक अन्य उदाहरण लें। एक रिपोर्टर अवसाद में बैठे पीड़ितों के एक समूह के पास जा
कर पूछता है “यहाँ क्या आप में से किसी का
कोई सगा-सम्बन्धी भी मरा है “। टीवी चैनल देखने वालों को यह लगा कि अगला सवाल कहीं यह ना
हो “ क्या आप लोगों में से किसी का सगा-सम्बन्धी कुछ देर
में मरने वाला तो नहीं है”।
अगर हम एक तरफ सरकार को दोष दे रहे हैं कि आपातकाल से निपटने के लिए डिजास्टर
प्रबंधन में लगी सरकारी एजेंसियों के पास कोई “एस ओ पी” (स्टैण्डर्ड ऑपरेटिंग
प्रोसीजर) नहीं था तो शायद मीडिया के लीडरों (संपादकों) को यह देखना होगा कि क्या
उन्होंने अपने फील्ड स्टाफ (रिपोर्टिंग टीम) के लिए कोई एस ओ पी बनाई थी?
क्या यह सच नहीं है कि पीड़ितों को देखते ही टूट पड़ने वाले रिपोर्टरों को बताना
होगा कि नुमाइश लगा कर “पहले हम” के भाव का सर्वथा परित्याग करते हुए एक संजीदगी के
साथ पीड़ितों से बात की जाये। एक साथ दर्जनों कैमरे देखकर पीड़ित कई बार कुछ ऐसा कह
देता है जो पूरे प्रयास को बाधित कर सकता है। मसलन पूरे देश से आये तीर्थ-यात्री
फंसे हैं। ऐसे में यह बताना कि “अमुक जगह स्थानीय
लोगों ने पीड़ितों को लूटा है, उनमे से कुछ जिन्दा
लेकिन अशक्त लोगों को लूट कर खाई में फेंक दिया गया”, पूरे देश में उत्तराखंड के लोगों को लिए एक बड़ा ख़तरा पैदा कर सकता था। दरअसल
कोई भी ऐसी रिपोर्टिंग जिससे कहीं
भावनात्मक द्वेष पैदा होने का खतरा हो आपेक्षित नहीं है। हाँ , यह बात सारे रिपोर्टर सरकार या पुलिस को बता सकते
हैं। सरकार या पुलिस को भी यह डर रहेगा कि अगर त्वरित कार्रवाई नहीं की गयी तो
मीडिया इसे उजागर भी कर सकती है यह बताते हुए कि सरकार या पुलिस के संज्ञान में यह
बात पहले लाई गयी थी।
सबसे अधिक आरोप मीडिया पर उस समय लगे जब एक चैनल के रिपोर्टर ने एक पीड़ित बालक
के कंधे पर बैठ कर पी-टू-सी (कैमरे की तरफ मुखातिब हो कर सूरते हाल बयां करने की
विधा) किया। स्पष्ट है कि पीड़ित बालक के कंधे पर बैठना ना तो कोई सन्देश के लिए था
नहीं किसी तरह भी नैतिक था। रिपोर्टर का व्यवहार पत्रकारिता के हर मानदंड के
विपरीत हीं नहीं था , शर्मनाक भी था। शायद् फील्ड
स्टाफ को अभी ना केवल और प्रोफेशनल ट्रेनिंग की ज़रुरत है बल्कि उन्हें मानवीय
मूल्यों से भी दो-चार करने की दरकार है।
तमाम एडिटरों ने स्वतः हीं इन गलतियों को संज्ञान में लिया। संपादकों की
सर्वोच्च संस्था ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बी ई ए ) ने फैसला लिया कि भविष्य
में ऐसी स्थिति ना बने इसके लिए कवरेज के सभी आयामों को लेकर एक एस ओ पी बनाया
जाये और ना केवल फील्ड स्टाफ को बल्कि डेस्क को भी इन स्थितियों को लेकर अधिक
सेंसिटिव बनाया जाये।
बी ई ए ने इसके लिए कमर वहीद नकवी(पूर्व न्यूज डायरेक्टर आज तक) की अध्यक्षता
में एक पांच –सदस्यीय समिति गठित की है
जिसमे अर्नब गोस्वामी(एडीटर-इन-चीफ टाइम्स नाउ), विनोद कापड़ी(मैनेजिंग एडिटर इंडिया टीवी), सुप्रिया प्रसाद(मैनेजिंग एडिटर आज तक) एवं विनय तिवारी(मैनेजिंग
एडिटर सीएनएन-आईबीएन) सदस्य है। इस समिति की एक बैठक हाल हीं में संपन्न हुई है।
bhaskar
Author being senior journalist has rightly put finger at weak nerves of media and its reporting. The point of SOP for Government is not possible as disasters also don't follow the rules SOP.CPM and PERT are only standard procedures to deal with contingencies and military has advanced training in this procedure.
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