Tuesday, 7 May 2013

भ्रष्टाचार, कानून और “दूध-पानी” का रिश्ता



डी एम् के नेता करूणानिधि की ८० वर्षीय पत्नी हीं नहीं बेटी और तमाम नजदीकी रिश्तेदार कुछ कंपनियों में डायरेक्टर हैं. भारत के मंत्री का बेटा भी कुछ कम्पनियों में डायरेक्टर है,  ए मंत्री का भांजा इतना प्रतिभाशाली है कि तीन साल पहले दो कमरे किराये के मकान से “आर्थिक विकास “ करता हुआ ६० करोड़ का आलिशान बंगला बनवा लेता है. बसपा उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के भाई से लेकर तमाम रिश्ते-नातेदार जमीन के धंधे में “अपना आर्थिक विकास” करते हैं. सोनिया गाँधी क दामाद रोबर्ट वाड्रा भी रियल एस्टेट के धंधे में व्यापार कौशल दिखाते हैं. भाजपा के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी भी अपना व्यापार कौशल दिखाते हुए, और वह भी विदर्भा में जहाँ किसान पानी के बिना त्राहि-त्राहि कर रहा है, आत्म-हत्या कर रहा है, पूर्ति ग्रुप को एक साधारण रिटेलर की स्थिति से इतना ऊपर पहुंचा देते हैं कि इनकम टैक्स को बताना पड़ता है कि कंपनी ने ७००० करोड़ रुपये की कर चोरी की है.
भारतीय संविधान में अनुच्छेद १९ (जी) में सभी नागरिकों को व्यापार करने का अधिकार है. रिश्तेदार होने से नागरिक अधिकार ख़त्म नहीं होते ना हीं बूढ़े होने, महिला होने या फिर रियल एस्टेट का धंधा करने से ये मौलिक अधिकार बाधित होते हैं. कानून से दो और अधिकार भी मिले हैं ---- एक व्यक्ति तब तक दोषी नहीं जब तक अदालत के अंतिम चौखट से ऐसा ऐलान नहीं दिया जाता. और चूंकि दोषी नहीं तो फिर मीडिया क्यों ऐसे “तेजस्वियों” की,  जिनकी भूमिका देश के जी डी पी को  बढाने में “अप्रतिम” है , पगड़ी उछलती है? वाड्रा के मामले में कांग्रेस के मनीष तिवारी को तब बताना पडा कि “भारत के नागरिक के रूप में उन्हें भी बिज़नेस करने का अधिकार है” .  
यही वजह है कि आज सरकार के लोगों को हीं नहीं मुख्य सत्ताधारी पार्टी  को हर बार जब बेजा “पगड़ी उछलती” है तो कुछ जुमले निर्विकार भाव से कहने पड़ते हैं. “जब मंत्री ने (या पार्टी अध्यक्ष ने) खुद कह दिया कि वह हर जांच के लिए तैयार हैं तो फिर क्यों हंगामा?” या “मामले  की जांच हो रही है कृपया इस तरह के सवालों से जांच प्रभावित ना करें” या “मामला अदालत के विचाराधीन है इसलिए कुछ भी कहना गलत होगा” या “जांच के बाद दूध का दूध, पानी का पानी हो जायेगा, अभी से क्यों शोर मचा रहे हैं?”.
समसे जोरदार तर्क तो यह रहा कि जब मीडिया ने कांग्रेस के एक सांसद व “आमतौर पर” प्रवक्ता सत्यव्रत चतुर्वेदी से पूछा “सी बी आई डायरेक्टर क्यों गए कानून मंत्री के यहाँ सलाह लेने?” तो उनका “आत्म-श्लाघा-जनित-क्रोध” (सेल्फ-राइटिअस इन्डिग्नेसन)  दिखने लगा. रिपोर्टर को हिकारत से देखते  हुए उन्होंने कहा “सी बी आई डायरेक्टर अगर कानून मंत्री के पास नहीं जाएगा तो क्या नेता विरोधी दल से सलाह लेगा?” कितना पावरफुल तर्क है. कुछ ऐसा हीं जैसा अगर जेबकतरे से पुछा जाये कि “क्या तुमने सेठ की जेब काटी? और जेबकतरे का जवाब हो “सेठ की ना कटता तो क्या किसी भिखमंगे की काटता?”. इस जवाब में साम्यवाद का भाव भी है, विचारात्मक नैतिकता भी है और सिस्टम पर अटूट विश्वास भी है. सत्ता में बैठे लोगों को जी डी पी बढ़ने की चिंता भी है ताकि भारत खुशहाल हो और यही वजह है मंत्री का बेटा या भांजा रातों-रात अरबपति बन जाता है. साथ हीं सिस्टम पर अगाध विश्वास भी. तभी तो कोई जनार्दन द्विवेदी या कोई सत्यव्रत चतुर्वेदी को कहना पड़ता है “भाजपा को इस्तीफा माँगने की बीमारी हो गयी है या फिर लोगों को न्याय-व्यवस्था पर भी विश्वास नहीं है”. मायावती का भी यही मानना है कि जाँच से पहले इस्तीफा मांगना गलत है. उन्हें याद है कि किस तरह एक राज्यपाल ने नियम का सहारा लेता हुए उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले में सी बी आई को मुकदमा चलने की इज़ाज़त नहीं दी और किस तरह सी बी आई ने लालू के मामले अदालत के निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील नहीं की लेकिन नरेन्द्र मोदी के खिलाफ की. यह सब “करने या ना करना के लिए” के “उपयुक्त” कानून का हीं तो सहारा लिया गया.  क्यों विपक्ष या मीडिया यह बात नहीं समझता कि कानून अपना काम करता है कुछ साल में जांच होगी और कुछ दशक में फैसला फिर भी हंगामा क्यों?
मीडिया की इन्हीं बेवकूफियों की वजह से दो दिन पहले खांटी वकील, भारत सरकार के मंत्री और कांग्रेस के “इंटेलेक्चुअल संकटमोचन” कपिल सिब्बल को कहना पड़ा कि “मीडिया भ्रष्ट है और इसे सरकार के अच्छे काम नज़र हीं नहीं आते”. शायद उनका इशारा इस बात पर था कि इस भ्रष्ट मीडिया में ऐसे पाकसाफ सरकार का यही हश्र होना है. लगभग यही आरोप गडकरी के लोगों ने भी मीडिया पर लगाये थे यह कहते हुए कि जब गडकरी स्वयं जांच मांग रहे हैं तो मीडिया कुछ लोगों के इशारे पर वितंडा क्यों खड़ा कर रही है? शायद सरकार की नाराजगी इस बात पर भी हो कि सी बी आई का डायरेक्टर तो कानून मंत्री के चौखट तक सजदा करता है पर यह (मीडिया) कौन सी चिड़िया है जो “व्यक्ति के आर्थिक विकास” को लेकर देश को “गुमराह” कर रही है और विदेश में “भारत महान” के साख पर बट्टा  लगा रही है. कोई ताज्जुब नहीं इस विकास की विरोधी मीडिया पर एक बार फिर से अंकुश लगने की कोशिश की जाये. इस तरह की “भ्रष्ट” मीडिया को बेलगाम छोड़ने का मतलब तो होगा कि एक साल बाद होने वाले चुनाव में जनता को भ्रमित हो जाये गी और नतीजतन  “एक विकास-परक” सरकार को सत्ता से हाथ धोना पडेगा. साथ हीं नैतिकता से ओतप्रोत सिस्टम को बदलने का दवाब बढ़ जायेगा.
एक अन्य तर्क भी सत्ता पक्ष दे रहा है. “इन लोगों को जनता के चुने प्रतिनिधियों और प्रजातंत्र के मंदिर रुपी संसद पर विश्वास नहीं है लेकिन गैर-चुने अफसरों की स्वतंत्र संस्था पर ज्यादा विश्वास है”. सत्ता पक्ष का दृढ विश्वास है कि स्वतंत्र जांच एजेंसी में कोई गाँधी तो होगा नहीं और अगर बाई-चांस हो गया तो वह “वर्तमान प्रजातंत्र” के लिए घातक  भी होगा यही वजह है कि एन डी ए की सरकार हो या यू पी ए की किसी ने भी १९९७ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा विनीत नारायण केस में सी बी आई को जांच में स्वतंत्र रहने के लिए दी गयी व्यवस्था को कूड़े की टोकरी में डाल दिया. आखिर देश को प्रजातंत्र के रास्ते पर ले जाना जो था.
अब संसद की स्थिति पर गौर करें. दुनिया के किसी भी परिपक्व प्रजातंत्र में दल-बदल कानून नहीं है. लेकिन भारत में कोई सांसद (जनता का प्रतिनिधि) अपनी मर्जी से अगर वोट देता है तो उसकी सदस्यता ख़त्म करने का स्पष्ट कानून है. यानि संसद में चाहे कुछ भी बहस करा लें अंत में नतीजा वही होगा जो दल का नेता चाहेगा. और नेता क्या चाहेगा यह इस बात से तय होगा कि उसका बेटा या रिश्तेदार “अपने (और देश के ) आर्थिक विकास” में क्या योगदान कर रहें हैं. अभिव्यक्ति की आज़ादी का इतना बड़ा मखौल भारतीय प्रजातंत्र में हीं हो सकता है. चूंकि प्रजातंत्र में बहुमत हीं अहम् होता है लिहाज़ा जिस दल या दल समूह का बहुमत है वही जनता की आवाज है वही कानून है और वही सत्य है. अगर मायावती या मुलायम इस बहुमत को बदल दें तो जनता की आवाज की व्याख्या बदल जायेगी, सत्य बदल जाएगा लेकिन वे भी ऐसा क्यों करें आखिर उनके और उनके परिवार के लोगों की आय से अधिक संपत्ति के मामले में सी बी आई की जांच भी तो एक सत्य है.
लिहाजा आने वाले वर्षों या दशकों तक हम “दूध का दूध” , “कानून अपना काम कर रहा है” “हम जांच के लिए तैयार हैं” “मामला अदालत के विचाराधीन है” और “मीडिया भ्रष्ट है , नकारात्मक है” या संसद में विश्वास रखें” के भाव में सत्ता पक्ष के करुनानिधियों, बंसलों, राजाओं, कलामाडियों या उनके रिश्तेदारों के “व्यापारिक कुशलताओं” को झेलते रहेंगे और प्रजातंत्र मजबूत होता रहेगा.      
bhaskar

3 comments:

  1. We are reading such a good satire after a long period.

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  2. Yeh ek Andolan hai. All citizens must appreciate and propagate the truth about corrupt leadership. Media personalities have also to withdraw their blind praise of corrupt leading houses like Nehru. Mahatma gandhi had commoted numerous serious blunders, just to favour JL Nehru which vitiated Congress policies. The worst hit was Inner Democracy and extended to external democracy. No doubt above Article desrves praise and following.

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  3. N K ji media me bhi kuchh log corrupt hai parantu aap jaise log bhi hain jo sirf aur sirf sachhai ka saath dete hain.Aur kapil ji ki baat aap apne lekh me naa karein kyonki unko to 2g me koi ghotala dikhta hi nahi

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